Moral Stories In Hindi For Class 10 That You Must Read

पतिव्रता की परीक्षा

Moral Stories In Hindi For Class 10 That You Must Read – सन् १८१८ ई० की यह घटना है। भारतपर ईस्ट इंडिया कंपनीका शासन चालू था। बंगालमें जबरन लगान वसूल करनेका आर्डर जारी हो चुका था। जिला मुर्शिदाबादके दीवान देवीसिंह नामके एक ठाकुर बनाये गये। उन्होंने जबरन लगान वसूल करना और माफी जमीनपर लगान कायम करना शुरू कर दिया।

ठाकुर साहब बड़े ही जालिम और बड़े ही व्यभिचारी थे। उनके भयानक और रोमाञ्चकारी कर्म आज दिन कहानियोंके रूपमें मुर्शिदाबादके जिलेमें वर्णन किये जाते हैं। उनकी एक करतूत इस कहानीमें प्रकट की जाती है।

खास मुर्शिदाबाद शहरमें जगन्नाथ भट्टाचार्य नामके एक ब्राह्मण रहते

थे। उनकी स्त्रीका नाम कमला था। वह तनसे तो सुन्दर थी ही, मनसे भी सुन्दर थी। स्त्रियाँ तीन प्रकार की होती हैं। प्रथम वे, जिनके तनपर भी स्वर्ग छाया रहता है और मनपर भी। द्वितीय वे, जिनके तनपर कुरूपता रहती है, परंतु मनपर सुन्दरता छायी रहती है। तृतीय वे, जिनके तनपर स्वर्गे छाया रहता है, परंतु मनमें नरकका निवास होता है।

कमलादेवी प्रथम श्रेणीकी महिला थी। वह पतिव्रता थी। अपने तीन लड़कों और पतिको लेकर सुखसे जीवन व्यतीत करती थी। वेदानुसार जैसा एक गृहस्थका घर होना चाहिये, जगन्नाथ भट्टाचार्यका वैसा ही गृहस्थाश्रम था। बादशाह अकबरकी दी हुई १०१ बीघा माफी थी। घरमें काफी धन और धान था।

रातको पुराणोंकी कथा होती थी। अतिथिका सत्कार होता था। घरके बाहर कथा और अतिथिका पूजन हुआ करता था, घरके भीतर तुलसी और शालग्राम पूजे जाते थे। तीनों लड़के संस्कृत तथा बँगला पढ़ते थे। उनके नाम थे- रामनाथ, कृष्णनाथ और विष्णुनाथ ! तीनों सुन्दर, तीनों चरित्रवान् और तीनों ही विनयी थे।

एक दिन देवीसिंहने कमलाको मन्दिरमें देख लिया। उसकी सुन्दर आकृतिपर वह मोहित हो गया। दूसरे दिन देवीसिंहने जगन्नाथको बुलाया और कहा- ‘आपके वास्ते कंपनीका सख्त हुक्म आया है। आपकी माफीपर तीन रुपया बीघा लगान तीन सालसे कायम हो चुका है।

१०१ बीघापर ३०३ रुपये सालाना हुए। इस प्रकार तीन सालका ९०९ रुपया आपपर बकाया लगान है। तीन दिनके भीतर आप सरकारी रुपया जमा करें। नहीं तो कुर्की करनी पड़ेगी। हमलोग नौकर हैं-जैसी मालिककी मर्जी होगी, वैसा करना पड़ेगा।’

जगन्नाथकी माफीपर कंपनीने कोई लगान कायम नहीं किया था। कंपनीने भी उसे माफी मान लिया था; परंतु सरकार उतनी जालिम नहीं कि जितने उसके हाकिम लोग जालिम होते हैं। अच्छे शासनको भी बुरे शासक लोग बदनाम कर दिया करते हैं। कंपनीका नाम था और देवीसिंहका काम था।

तीन दिनमें जगन्नाथने ५०५ रुपये जमा कर दिये। बाकीके लिये मुहलत माँगी। देवीसिंहने कहा- ‘तुम एक धनी आदमी हो। तुमको मुहलत कैसी ! कल सुबह कुर्की होगी।

सरकारी पैसा है—जानते हो?’ सुबह होते ही देवीसिंहने जगन्नाथका मकान घेर लिया। ठाकुर साहबके सिपाहियोंने घरमें घुसकर जेवरात, कपड़े और अनाज-मय

बर्तनोंके कुर्क कर लिये अपनी समझसे उन्होंने घरमें कुछ भी न छोड़ा किताबें और चारपाइयाँ भी उठा लीं तख्त और हथियार भी ले लिये। प्रायः तीन हजार रुपयेकी कीमतका सामान कुर्क किया गया, परंतु उसका मूल्य केवल ३०० रुपया लिखा गया। १०४ रुपया नकद बकाया निकाला गया।

देवीसिंहने जगन्नाथको कैद कर लिया। जबतक यह बकाया जमा न हो, तबतक वे जेलकी हवा खायेंगे- ऐसा ही ठाकुर साहबका आर्डर हुआ। धर्मात्मा जगन्नाथ अपना सर्वस्व देकर जेल में ठूंस दिये गये। कारण कुछ नहीं। कारण यही था कि उनकी स्त्री सुन्दरी थी सो थी, पतिव्रता क्यों थी? यही उसका अपराध था।

दूसरोंका अनाज पीसकर और चरखा चलाकर बेचारी कमला अपने बच्चोंका पेट भरने लगी। एक दिन देवीसिंहने कमलाको बुलाया। अपने जीर्ण बच्चोंके साथ शीर्ण कमलाको आना पड़ा।

बकाया जो लगी थी। देवीसिंह- तुम जानती हो कि तुम्हारी माफ़ीपर जो सरकारी लगान कायम किया गया है, उसको मैं माफ़ करा सकता हूँ। लिख दूंगा कि उस आराजीमें कुछ पैदा ही नहीं होता, ऊसर जमीन है।

कमला- आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – इतना ही नहीं। तुमपर जो ९०९ रुपयेकी डिग्री हुई। है उसे भी मैं खारिज करा सकता हूँ।

कमला-आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – इतना ही नहीं। कुर्कीका सारा सामान तुम्हारे घरमें जैसा का तैसा रखवा सकता हूँ एक तिनका भी कम न होगा।

कमला- आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – इतना ही नहीं। तुमने जो ५०५ रुपया दिया है, वह

भी वापस कर सकता हूँ। कमला- आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – इतना ही नहीं। तुम्हारी माफ़ीके लिये एक ऐसी सनद

दिलवा सकता हू कि चाहे जो राजा हो, तुम्हारी जमीन सर्वदा तथा सर्वथा माफी ही बनी रहेगी। कमला- आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – इतना ही नहीं। तुम्हारे पतिको जेलसे छोड़कर उनको समस्त मुर्शिदाबादका ‘पुरोहितमशाय’ यानी धर्माचार्य बना सकता हूँ। कमला- आप ऐसा कर सकते हैं।

देवीसिंह – मगर एक शर्त है। वह यह कि प्रति सोमवारकी रातको

तुम मेरे घरमें रहा करो। तुम्हारे लिये ही यह सब तमाशा करना पड़ा हूँ। मेरी शर्तको मंजूर करो और अपने घर जाओ। कमलाने देवीसिंहके मुखपर थूक दिया और अपने बच्चोंसहित अपने घर चली आयी।

एक दिन कमलाका बड़ा लड़का रामनाथ देवीसिंहकी कोठीके द्वारपरसे होकर कहीं जा रहा था। देवीसिंहने उसे गिरफ्तार कर लिया।

दूसरे दिन देवीसिंहने रामनाथका सिर कटवाकर कमलाके पास भेज दिया; परंतु कमलाका आसन न हिला । देवीसिंहने एक दिन कृष्णनाथको भी पकड़ मँगाया। उसका भी सिर काटकर कमलाके पास भेजा।

The Thakur - Moral Stories In Hindi For Class 10 That You Must Read
Thakur

परंतु कमलाने उफ़ न की। एक दिन देवीसिंहने विष्णुनाथको पकड़वा लिया, उसकी भी वही हालत की। कमलाने अपने तीनों बच्चोंके सिर अपनी गोदमें देखे, रोयी भी बहुत; परंतु देवीसिंहका प्रस्ताव स्वीकार न किया।

अन्तमें देवीसिंहने जगन्नाथका भी खून करा डाला। जगन्नाथका सिर देखकर कमला रोयी नहीं। उसने अपनी कटार निकाली, जिसे वह सदा अपने पास रखती थी। एक पत्थरपर पानी डालकर उसने कटारपर शान चढ़ायी। उसने सिरके बाल खोल दिये और चण्डीका रूप धारण किया।

कटार लेकर कमला देवीसिंहके दरबारमें जा पहुँची। तख़्तपर बैठा

हुआ देवीसिंह अफ़ीमकी पीनकमें ऊँघ रहा था। सिंहवाहिनी-सी गरजकर कमला तख़्तपर जा चढ़ी। उसको पकड़नेका साहस किसीको नहीं हुआ। कमलाके तेजके सामने किसीकी हिम्मत न पड़ी कि जो उस चण्डीकी राह रोकता।

जिस क्षण अबला सबलाका रूप धारण करती है, उस समय साक्षात् महाकाल भी उसका सामना नहीं कर सकता। कमलाने देवीसिंहकी छातीमें कटार घूँस दिया। वह मरकर वहीं ढेर हो गया। कमलाने दूसरा हाथ अपने पेटपर चला दिया! वह भी मरकर वहीं गिर पड़ी।

लोगोंने एक ही चितापर जगन्नाथ, कमला और तीनों लड़कोंको बाँधा और श्मशान में जलाया।

सामने ही देवीसिंहकी लाश जलायी गयी।

इसके बाद मुर्शिदाबादकी पब्लिकने सतीकी मठिया बनवायी। नगरकी स्त्रियोंने कमलाकी मठी पूजना शुरू कर दिया। सतीकी मठिया आजतक पूजी जाती है। सतीकी मठियाके सामने ही देवीसिंहका चबूतरा बनाया गया था ।

दर्शकलोग प्रथम सतीको प्रणाम करते और फिर देवीसिंहके चबूतरेपर पाँच जूते मारकर अपने घर जाते थे। न कमला रही और न देवीसिंह रहा। दोनोंकी अच्छी और बुरी कहानी रह गयी।

वीरांगना

लगभग १८९८ ई० में यह घटना घटी थी। रायपुर जिलेकी एक पुलिस चौकीपर एक दारोगा और सात सिपाही रहते थे। तीन सिपाही हिंदू थे और दारोगासहित पाँच सिपाही मुसल्मान । शामका समय था। दारोगाजी चौकीके बाहर एक चबूतरेपर बैठे

सिपाहियोंको देहाती पहरेपर भेज रहे थे। तीनों हिन्दू और एक मुसल्मान

सिपाहीको जब पहरेपर भेज चुके तब उनके पास केवल तीन मुसल्मान

सिपाही रह गये

तबतक पासके रास्तेसे एक युवक अपनी पंद्रह वर्षीया बहिनके साथ निकला। दारोगाकी नजर लड़कीपर पड़ी। दारोगाने एक सिपाहीसे कहा- ‘उन दोनोंको यहाँ ले आओ।’

जब वे आ गये तब दारोगाने युवकसे पूछा—’तुम कौन हो और तुम्हारे साथ यह लड़की कौन है?’ ‘मैं हरीपुरके ठाकुर साहबका लड़का हूँ। यह मेरी बहिन है।’

‘तुम दोनोंके नाम ?’

‘मेरा नाम चेतसिंह है और इसका नाम दुर्गावती है।’

‘कहाँसे आ रहे हो?”

‘मेरी बहिन मेरे मामाके यहाँ गयी थी। अब इसका विवाह होनेवाला है, इसलिये घर लिये जाता हूँ। हमलोग मझोलीपर बैठकर आ रहे थे। यहाँ आनेपर एक बैल बीमार हो गया। मेरा गाँव यहाँसे दो मील दूर है, सोचा कि पैदल चले जायँगे।’

‘मगर रास्ता खराब है। कल एक मुसाफिर लुट गया था। तुम्हारी बहिन जेवर पहिने है। तुमलोग यों ही मुँह उठाकर चल देते हो – बदनामी होती है साले थानेदारकी !’

‘तो क्या न जाऊँ?’

‘हाँ, तुम दोनों आज रात यहीं थाने में

‘बहुत अच्छा।’

‘मालूम पड़ता है कि तुम इस लड़कीको कहींसे भगा लाये हो। यह तुम्हारी बहिन नहीं हो सकती।’ दारोगाने आँख दिखाते हुए कहा। ‘यह लड़का काला है और यह लड़की गोरी है।’ एक सिपाहीने

दारोगाकी दलीलपर मुहर लगा दी। ‘इस लड़केको हिरासतमें बंद कर दो और इस लड़कीको मेरे

कमरेमें पहुँचा दो।’ दारोगा बोला। ‘हम दोनों भाई-बहिन हिरासतमें रहेंगे।’ लड़कीने कहा। ‘नहीं- तुम्हारा

बयान एकान्तमें लेना है।’

सिपाहियोंने लड़केको हवालातमें ठूंस दिया और लड़कीको दारोगाके कमरेमें बिठला दिया। दारोगा – देखो दुर्गावती ! तुम डरो मत। सुबह तुम दोनोंको भेज

दिया जायगा। कुछ खाना खाओगी? मिठाई मँगवाऊँ? लड़की-जी नहीं, हमलोग खाना खा चुके हैं। दारोगा – आरामसे पलंगपर बैठो जमीनपर क्यों बैठी हो? इसे

अपना घर समझो और मुझे अपना लड़की-जो पूछना हो, पूछिये। मैं भाईके पास जाऊँगी।

दारोगा – तुम सचमुच उसकी बहिन हो? लड़की- मेरे पिताके पास सिपाही भेजकर मालूम कर लो। अभी

सिपाही भेजो – अभी पिताजी यहाँ चले आयेंगे। हमलोग क्षत्रिय हैं-झूठ

नहीं बोलते।

दारोगा – यकीन आ गया। सुबह तुमलोग बेशक चले जाना। मगर आजकी रात तुमको इसी कमरेमें मेरे पास रहना होगा।

लड़कीकी आँखें लाल हो गयीं। वह बोली- ‘मैं किसी रंडीकी लड़की नहीं हूँ- एक पतिव्रता क्षत्राणीकी लड़की हूँ। खबरदार! जबान सँभालकर बात करना।’

‘यह मिजाज ? काफिरोंका यह हौसिला ! अब मैं और तीनों सिपाही – तुम्हारे मिजाजको देखेंगे। पलंगपर लेटो। मैं पेशाब करके अभी आता हूँ।’ दारोगाने कहा !

बाहर निकलकर दारोगाने तीनों मुसल्मान सिपाहियों को समझा दिया और कहा-एक घटे बाद में बाहर आ जाऊंगा। तब तुम जाना। इतना कहकर दारोगा अपने कमरेकी तरफ बढ़ा।

उधर दुर्गावतीने जो कमरेमें नजर दौड़ायी तो एक खुंटीपर एक तलवार लटकती दीखी। उसने तलवार नंगी करके हाथमें ले ली और खुद किवाड़की आड़ में खड़ी हो गयी।

ज्यों ही दारोगा साहब भीतर घुसे त्यों ही उस लड़कीने ऐसी तलवार मारी कि सिर कटकर फर्शपर गिर पड़ा। दुर्गावतीमें ‘दुर्गापन’ झलक रहा था। उसने किवाड़ बंद कर दिये और लाशको पैरोंसे पलंगके नोचे कर दिया। खुद फर्शके एक कोनेमें बैठ गयी।

एक घंटा बाद एक सिपाही आया। लड़कीने साँकल खोल दी और खुद तलवार लिये किवाड़की ओटमें हो गयी। ज्यों ही सिपाही भीतर आया त्यों ही उसका भी सिर काट डाला। इसी प्रकार तीनों सिपाही मार डाले गये। पलंगके नीचे चार लाशें थीं और कमरा खूनसे तर था।

सबेरा हुआ। देहाती पहरेके सिपाही आये। दारोगाजीको आवाज दी। किवाड़ थपथपाये। लड़कीने कहा- ‘इस कमरेमें चार खून हो गये हैं और मैंने ही चारोंको मारा है। कमरा तब खोला जायगा, जब कलक्टर साहब आ जायँगे।’

उस लड़कीने अपना सारा हाल सुनाकर कहा ।

एक सिपाही क्षत्रिय था। वह रेलपर बैठकर शहर गया और कलक्टर साहबको मोटरद्वारा चौकीपर ले आया। कलक्टर साहबके साथ पुलिस सुपरिटेंडेंट भी थे। कलक्टर साहब कायस्थ थे और कप्तान साहब क्षत्रिय ।

‘किवाड़ खोलो-बेटी! मैं आ गया।’ कलक्टरने कहा। किवाड़को खोलकर हाथमें खून भरी तलवार लिये दुर्गावती साक्षात् दुर्गा बनी बाहर निकली।

लड़कीने सारा हाल सच-सच बयान कर दिया। कलक्टर साहबने उसके भाईको हिरासतसे निकलवाया। उसने भी वही बयान दिया जो लड़कीने दिया था।

कलक्टरने कहा- ‘तुमने कोई जुर्म नहीं किया, बेटी! अपने प्राणोंपर और अपने धर्मपर संकट आनेपर हमला किया जा सकता है—यह कानून कहता है। ‘हिफाजत खुद अखतियारी’ वाली दफासे तुम बेकसूर हो। क्यों कप्तान साहब?”

‘बिलकुल बेकसूर ! बल्कि काबिले-इनाम यह केस है।’ कमानने

कहा।

‘मैं तुमको वह गाँव इनाम देता हूँ, जिसमें तुमने जनम लिया है- दुर्गादेवी!’ कलक्टर साहबने कहा। ‘मैं तुमको यही तलवार इनाम देता हूँ, जिससे तुमने चार पाजियोंको

दोजखमें भेजा है-बेटी!’ कप्तान साहबने कहा । इसके बाद उस भाई-बहिनकी जोड़ीको अपनी मोटरमें बिठलाकर

दोनों आला अफसर-उनके पितासे मिलने और उनका बयान लिखनेके लिये- गाँवपर गये।

दुर्गाके पिताने दोनों अफसरोंका बड़ा आदर किया।

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पिताने कहा- ‘ये दोनों बच्चे मेरी ही संतान हैं। अपने मामाजीके

गाँवसे आ रहे थे। गाड़ीका एक बैल बीमार हो गया था। इसीसे पैदल

दोनों चल दिये थे।’

गाँवभरकी स्त्रियाँ तथा लड़कियाँ और लड़के दुर्गावतीके चरण छू रहे थे और ‘जय दुर्गा’ कह रहे थे।

‘इस लड़कीके ब्याह में हम दोनों अफसरोंको जरूर बुलाना ठाकुर साहब!’ कलक्टर साहबने कहा।

‘जरूर, हुजूर! जरूर!’ ठाकुर साहबने कहा। दुर्गावतीके विवाहमें सारा शहर उमड़ पड़ा था। सब अफसर

और सब रईस आये थे। विवाहके मण्डपके नीचे जेवरों और कपड़ोंका पड़ाव लग गया था। कहना नहीं होगा कि कलक्टर और पुलिस सुपरिटेंडेंट महोदयने जरूरी कागजात सरकारमें भेजकर न केवल दुर्गावतीको माफी दिलवायी वरं उसे बहादुरीकी सनद और इनाम भी दिलवाया!

मिथ्या

कलकत्ताके प्रेसीडेंसी कालेजमें जब शरद बाबू एम० ए० में पढ़ते थे तब रोज नामकी एक यूरोपियन लड़की बी० ए० में पढ़ती थी। शरद बाबू उसपर आकर्षित हो गये और वह भी उनको चाहने लगी थी। सहशिक्षाका यह अनिवार्य परिणाम है। सालभर बाद रोजके पिता जो एक व्यापारी फर्ममें मैनेजर थे, पेंशन लेकर लंदन चले गये और मिस रोज भी उनके साथ चली गयी।

उसी साल शरद बाबूने एम० ए० पास किया और उनका विवाह सुशीला नामकी एक शिक्षिता तथा सुन्दरी कन्या से हो गया। विवाहके बाद वे इंजीनियरी पढ़ने चले गये। मिस रोजका पत्र व्यवहार जारी ही था, अतएव शरद बाबूको उसका पता ज्ञात था । लंदन जाकर वे दोनों फिर प्रेमका झूला झूलने लगे।

एक साल बाद शरदने अपनेको कुआँरा बताकर मिस रोजके साथ बाकायदा गिरजे में विवाह कर लिया। विवाह रजिस्टरी हो गया। दोनोंका एक साथ फोटो खींचा गया और चित्रपर विवाहकी तारीख लिख दी गयी। इंजीनियरी पास करके मि० शरदचन्द्र घोष अपनी गोरी पत्नी रोजको साथ लेकर कलकत्ते आये।

उन्होंने अपने बहू बाजारवाले मकानपर रहना पसंद नहीं किया और बालीगंज में एक बँगला खरीदकर मिस रोजके साथ वहीं रहने लगे।

शरद बाबू प्रतिमास एक सप्ताह अपने घरपर अपनी पहली स्त्री सुशीलाके पास रहते थे। इसके लिये वे मिस रोजसे बहाना बनाते थे। कभी कहते सोनपुरका पुल कमजोर हो गया है-उसके निरीक्षणका हुकम आया है।

कभी कहते बम्बईमें काम है और कभी कहते कि काशीविश्वविद्यालयका साइंसवाला कमरा बनवाना 1 बेचारी रोज उनके बहानोंको सच मान लेती थी। एक सप्ताह बाद जब वे रोजके पास आते तो कुछ-न-कुछ सौगात लाते, जिससे रोजको उनके बाहर जानेका निश्चय बना रहता था।

मिथ्याकी आयु दीर्घ नहीं होती। जालसाजी बहुत दिनों नहीं चलती। धोखा भी एक दिन धोखा देता है। एक बार शरद बाबू यह बहाना करके अपने पुराने मकान पर चले गये कि वे लखनऊ के नये स्टेशनका नक्शा बनाने लखनऊ जा रहे हैं। एक सप्ताह बाद लौटनेका वादा कर गये। तीसरे दिन मिस रोजके खानसामाने शामको मिस रोजसे कहा खानसामा-हजूर । आज चितरंजन रोडपर इंजीनियर साहबको एक सफेद मोटरपर जाते देखा है।

रोज उनके साथ कोई था?

खान०- एक अत्यन्त सुन्दरी बंगालिन महिला भी साथ थी। दोनों घुल-मिलकर बातें करते और हँसते हुए जा रहे थे। रोज तुमको धोखा हुआ होगा। कोई दूसरा होगा।

खान० – जी नहीं सरकार! वही चश्मा, वही कोट और वही टोप

वे मेरे पाससे गुजर गये थे। मैंने उनको देख लिया परंतु उन्होंने मुझे नहीं देखा था।

रोज- तुमने उनका चेहरा नहीं देखा था?

खान०- देखा था, खूब अच्छी तरह देखा था। उनकी मुसकराहटको भी मैं पहचानता हूँ। मुझसे गलती नहीं हुई।

रोज- अच्छा उनको आने दो! मैं तहकीकात करूंगी।

एक सप्ताह बाद शरद बाबू आ गये। श्रीमती रोजके लिये लखनऊ के खरबूजे लाये। लखनऊ स्टेशनका नक्शा कैसा बनाया गया, वह भी उन्होंने समझाया। रोजने सोचा कि अवश्य ही खानसामा धोखा खा गया। शरद बाबू उसे धोखा नहीं देंगे। वह बात आयी गयीं हुई।

जब रोज कलकत्तेमें थी, उस समय उसके साथ नीरजा नामक एक बंगालिन लड़की पढ़ती थी। दोनोंमें मित्रता हो गयी थी। एक दिन उसके यहाँ मित्रोंकी चायपार्टी थी। उसने रोजको भी निमन्त्रण भेजा था। रोज आयी और नीरजाके साथ फाटकपर खड़ी होकर आगतोंका स्वागत करने लगी।

नीरजा जब आप लंदन चली गयी थी तब मेरा विवाह के

एक बंगाली डाक्टरसे हो गया था। अब उनका तबादला कलक

हो आया है। उस दिन मैंने आपको फल बाजारमें देखा तो आपको भी पार्टीका निमन्त्रण दे आयी थी। परंतु जल्दीमें होनेके कारण आप बातचीत न कर सकी। यह बताइये कि अब आप कलकल किस सिलसिलेसे आयी हैं। ‘रोजने अपने विवाहकी बात छिपायी। उसने बहाना बनाकर कहा

रोज मैं क्रिश्चियन गर्ल्स स्कूलकी प्रधानाध्यापिका होकर आती हैं। नीरजा – बड़ी खुशीकी बात है। तब तो कभी-कभी आपसे भेंट करेगी। हुआ

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A man who is lieing

रोज – अवश्य ।

नीरजा – आपने लंदनसे एम० ए० किया होगा?

रोज – जी हाँ । तबतक एक सफेद मोटर आयी और एक अत्यन्त भोली-भाली सुन्दर महिला उससे उतरी।

नीरजा – देखिये श्रीमती रोज! आपका शुभ नाम है सुशीला कुमारी। ये समस्त गुणोंकी निधान महिला हैं। इन-सी सती, सुशीला और विदुषी स्त्री इस विशाल नगरीमें खोजनेसे भी न मिलेगी। लंदनसे इंजीनियरी पास करनेवाले श्रीशरदचन्द्र घोषकी ये विवाहिता धर्मपत्नी हैं। पीली साड़ी कैसी भली मालूम हो रही है। मानो वसन्तका अन्त इनके ऊपर ही हो गया है।

रोज सन्नाटेमें आ गयी। वह एकटक सुशीलाको देखने लगी। सुशीलाकी मुसकान उसे जहरका इंजेक्शन देने लगी। खानसामावाली बात उसे याद आ गयी। वही सफेद मोटर और वही बंगाली महिला।

चायपार्टीके कामसे निपटकर जब रोज बँगलेपर पहुँची तब शब्द बाबूको कमरेमें बैठे इंतजार करते पाया। वह भी अनमनी-सी एक चैयरपर बैठ गयी।

शरद–प्रिये! इस समय मैं आपको शोकाकुल क्यों देख रहा हूँ? क्या पार्टीमें कोई दुर्घटना हुई थी ?

रोज – अवश्य ही वहाँ एक घटना घटी थी।

शरद-वह क्या?

रोज – उसका सम्बन्ध आपसे है।

शरद- मुझसे ?

रोज – जी ।

शरद-वह क्या?

रोज – सुशीलाकुमारी आपकी कौन है?

शरद- कोई नहीं।

रोज – आप यह बात अदालतमें भी कह सकते हैं?

शरद-हाँ ।

रोज – कहना। मैं जा रही हूँ। अपनी मित्र नीरजाके मकानपर ठहरूंगी। आपपर ४२० चलाऊँगी। आपको तलाक भी दे दूँगी।

शरद- क्यों?

रोज – क्योंकि सुशीला आपकी विवाहिता स्त्री है। आपने कुआँरा

बनकर मेरे साथ शादी की है। आपने ४२० किया है। शरद-यह भ्रम किसने डाल दिया? सुशीला मेरी कोई नहीं। मैं उसे जानता भी नहीं। यह सम्भव है कि उसके पतिका भी नाम वही हो कि जो मेरा है।

रोज – देखिये मि० शरद! अंग्रेजकी कौम प्रेम करना भी जानती है और वैर करना भी। हमलोग जान देना जानते हैं तो जान लेना भी जानते हैं। आपने कभी मेरी परीक्षा ली ही नहीं। यदि जानकी बाजी भी लगानी पड़ती तो भी मैं प्रेमपरीक्षामें पास होनेकी कोशिश करती। आप प्रेमपरीक्षामें फेल हुए हैं।

शरद-गलती इंसानसे ही होती है। यदि प्रेमके कारण मैंने धोखा भी दिया हो तो वह क्षम्य है।

रोज जी नहीं। प्रेम कईसे नहीं होता। वह वासना है-प्रेम नहीं। शरद-मुझे क्षमा न करोगी?

रोज अपना अपराध स्वीकार है?

शरद-स्वीकार है।

रोज इसका प्रतीकार करो।

शरद-करूँगा। कैसे करूँ?

रोज-या सुशीलाको तलाक दो या रोजको तलाक दो। एक म्यानमें दो तलवारें नहीं रह सकतीं।

शरद- हमारे यहाँ राजा दशरथने तीन विवाह किये थे। रोज तो उस राजाका सर्वनाश भी हो गया होगा !

शरद-रोज !

रोज – कहिये ।

शरद- मैं हाथ जोड़ता हूँ, पैरोंपर सिर रखता हूँ। मुझे अदालत में मत खड़ा करना। मेरी सारी प्रतिष्ठा धूलमें मिल जायगी। रोज – आपने मेरी प्रतिष्ठा जो धूलमें मिला दी है। बदला मिलेगा।

शरद-तलाक मैं किसीको नहीं देना चाहता। तुम एक लाख जुर्माना

कर सकती हो।

रोज – यह असम्भव है। मैं रुपयेकी भूखी नहीं-सभ्यताकी भूखी हूँ!

आज अदालतमें तिलभर भी जगह नहीं है। रोजवाला मुकद्दमा अखबारोंमें छप चुका है। रोजने शरद बाबूपर तलाक और ४२०, मुकद्दमे चलाये हैं। ‘स्टेट्समैन’ तथा ‘इंगलिशमैन’ ने रोजका पक्ष लेकर सम्पादकीय नोट लिखे हैं।

मजिस्ट्रेट भी अंग्रेज है। कलकत्ता शहरके सब गण्यमान्य अदालतमें उपस्थित हैं। आज सुशीलाकुमारीकी गवाही होनेवाली है। मुद्दई और मुद्दालेहके कटघरेमें शरद तथा रोज उपस्थित हुए। दोनों पक्षके बैरिस्टर तैयार खड़े हैं।

सुशीलाकुमारीको गवाही देनेके लिये अदालतने बुलाया। मि… शरदचन्द्रपर राहु और केतु दोनोंने चढ़ाई कर दी। उन्होंने सोचा कि ‘रोजरूपी राहु और सुशीलारूपी केतु-दोनों मुझे शब्द चन्द्रको खड़े हैं। अब क्या होगा? सुशीलाकी गवाहीसे मुझे तीन सालकी सा होगी और रोजकी तलाक स्वीकार हो जायगी।

यानी दोनों स्त्रियों की हाथसे गयीं और प्रतिष्ठा गयी सो व्याजमें। उसके बाद नौकरी भी रहे या न रहे- इसका भी अंदेशा है। अतएव मेरा मरता निश्चित है। सा सुनते ही हीरेकी अंगूठी चाट लूंगा। आज शरद बाबूकी लाश इस अदालतसे निकलेगी। हे ईश्वर! आपने बड़े-बड़े संकट दूर किये थे। सुना है कि गजका संकट अथाह और मूक संकट था, जिसे आपने काट डाला था।

मैं आपका भक्त तो नहीं हूँ, बल्कि आपकी सत्ताम भी संशय रखता हूँ। एक प्रकारसे मुझे नास्तिक ही समझिये। परंतु आज यदि मेरी प्रतिष्ठा रह जाय- मेरी बात रह जाय तो हे ईश्वर आपकी प्रतिष्ठा रह जाय-और आपकी भी बात रह जाय। अदालतमें मेरी परीक्षा हो रही है और मेरे हृदयकी अदालतमें ईश्वरकी परीक्षा हो रही है।

यदि गजको उबारा था तो दीनानाथ! आज मुझे भी उबार लीजिये। यदि आज इस अदालतरूपी सागरमेंसे मेरे जीवनका हाथी बच निकला तो आजसे मेरे बराबर आस्तिक कोई न होगा। आपसे आज परिचय हो जायगा। परिचयसे ही प्रेम होता है।”

बसन्ती साड़ी पहने सुशीलाकुमारी अदालतमें आयी। उसने एक

बार अपने पतिका मलिन मुख देखा और फिर रोजका अभिमान भग चेहरा देखा-अदालतमें सन्नाटा छा गया। मजिस्ट्रेटने पूछा- तुम्हारा नाम?

सुशीला – सुशीलाकुमारी।

मजि०- तुम अभियुक्त शरदचन्द्र घोषके मकानमें रहती हो? सुशीला – जी हाँ ।

मजि० – तुम अभियुक्तकी विवाहिता स्त्री हो?

सुशीला – जी नहीं।

मजि०- तो क्या रखेलकी हैसियतसे रहती

सुशीला- जी हाँ ।

मजि० तुमको क्या वेतन मिलता है? सुशीला-साढ़े तीन सौ मासिक।

मजि०- तुमको यह मालूम है कि शरद बाबूने रोजके साथ बाकायदा विवाह किया है?

सुशीला – जी हाँ ।

मजि० – क्या यह ब्याह शरद बाबूने तुम्हारी मंजूरीसे किया था? सुशीला – जी हाँ ।

मजि० – तुमको शरद बाबूकी कोई शिकायत है?

सुशीला – जी नहीं।

मजि० – तुम अब भी उनसे प्रेम करोगी?

सुशीला – जी हाँ ।

मजि० – मुकद्दमा खारिज। शरद बाबू ससम्मान बरी किये गये। श्रीमती रोजकी तलाककी दरखास्त खारिज।

अदालतके बाहर भारी गोलमाल एक बोला—यह है भारतीय संस्कृति ! विवाहिता सुशीलाने प्रेमकी परीक्षा किस उत्तमतासे पास की है।

दूसरा बोला- यदि भारतमें नारीकी यह त्यागभावना न रह जाय तो पातिव्रत धर्म ही मर जाय। फिर ऐसे नयनाभिराम दृश्य कहाँ ? शरद बाबूने हाथ जोड़कर कहा-सज्जनो ! सुशीलाने अपनी प्रतिष्ठाका बलिदान करके अपनी प्रतिष्ठा बहुत ही बढ़ा ली 1

रोज – आई सी ! प्रेमका सच्चा तत्त्व और उसका व्यवहार तो हिंदू

औरत ही जानती है !!

हो?

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