हेलो दोस्तों मै हूँ केशव आदर्श और आपका हमारे वेबसाइट मोरल स्टोरीज इन हिंदी (Moral Stories in Hindi) में स्वागत है आज जो मै आपको कहानी सुनाने जा रहा हु |
उसका नाम है Top 10 Best Moral Stories In Hindi यह एक Moral Stories For Kids और Motivational Story In Hindi और Top 10 Best Moral Stories In Hindi की कहानी है और
Top 10 Best Moral Stories In Hindi – इस कहानी में बहुत ही मजा आने वाला है और आपको बहुत बढ़िया सिख भी मिलेगी | मै आशा करता हु की आपको ये कहानी बहुत अच्छी तथा सिख देगी | इसलिए आप इस कहानी को पूरा पढ़िए और तभी आपको सिख मिलेगी | तो चलिए कहानी शुरू करते है |

Top 15 Best Moral Stories In Hindi
ये कहानियां निम्न है :-
- महाराज विक्रमादित्य
- बाबा राघव दास
- समाजसेवा
- स्वामी दयानंद
- लोभ का दुष्परिणाम
- पंडित रामनाथ
- लॉर्ड बायरन
- संत स्वामी कृष्ण महाराज
- राजहंशो कि टोली
- भगवान बुद्ध
- राजकुमार
- भगवान बुद्ध
- कश्मीर नरेश
- धर्म और अधर्म
- सिद्ध पुरूष
1. महाराज विक्रमादित्य
Moral Stories – घटना तब की है जब महाराजा विक्रमादित्य उज्जयिनी के राजा थे। उन्होंने अपने मंत्रियों को प्रजा का काम तुरंत करने की आज्ञा दी हुई थी । एक दिन एक आदमी विजयपाल नामक मंत्री के घर शुक्रवार की मध्यरात्रि को पहुँचा। दरवाजा खटखटाने पर मंत्री ने अंदर से कह दिया- “मैं अभी मजबूर हूँ, किसी काम में व्यस्त हूँ। अभी बाहर नहीं आ सकता। कृपया दूसरे दिन कभी भी आ जाइएगा।”
उस व्यक्ति ने दूसरे दिन महाराज विक्रमादित्य से विजयपाल मंत्री की शिकायत की। विक्रमादित्य ने पूरा घटनाक्रम सुना तो नाराज होकर विजयपाल से ऐसा करने का कारण पूछा। मंत्री ने कहा – “मेरी कुछ मजबूरी थी । वह मेरा राज है । कृपया उसे मेरे तक रहने दीजिए।” परंतु विक्रमादित्य ने उत्तर पाने की जिद की।

इस पर विजयपाल ने कहा- “महाराज! सप्ताह के छह दिन मैं कार्य मेंबहुत व्यस्त रहता हूँ। गुरुवार की रात को समय निकालता हूँ। मेरे पास कपड़ों का एक ही जोड़ा है, उसे मैं गुरुवार की रात धोता हूँ उस हालत में मैं बाहर कैसे आ सकता हूँ? फिर नित्यकर्म भी करने होते हैं। अन्य दिनों उसके लिए भी समय नहीं मिलता। मेरा रहस्य बस, यही है ।”
विक्रमादित्य ने सुना तो परमात्मा को धन्यवाद दिया कि उनके राज्य में ऐसे मंत्री भी मौजूद हैं, जो अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझते हैं। वे न तो प्रजा के प्रति लापरवाह हैं और न ही ईमानदारी को भूलते हैं। ऐसे कर्त्तव्यपरायण कर्मचारियों से किसी राष्ट्र की प्रगति सुनिश्चित हो पाती है।
2. बाबा राघव दास
Moral Stories – बाबा राघवदास उन दिनों गाँव-गाँव घूमकर लोगों को स्वच्छता हेतु जागरूक करते । उन दिनों कितने ही गाँव महामारियों की चपेट में आ गए थे। वे एक गाँव में अपने साथियों के साथ पहुँचे। उन्होंने वहाँ ग्रामीणों को सफाई का महत्त्व बताया और स्वयं भी उस गाँव में सफाई करना शुरू किया।
ऐसा करते महीनों व्यतीत हो गए, परंतु वहाँ के ग्रामीणों के जीवन में कोई अंतर नहीं आया। एक दिन एक कार्यकर्त्ता बाबा से पूछ ही बैठा – “बाबा! आपको इन ग्रामीणों को सफाई का महत्त्व बताते और स्वयं सफाई करते महीनों बीत गए, परंतु इनके स्वभाव में तनिक भी परिवर्तन नहीं आया।

आप कब तक इन गँवारों को बदलने का प्रयास करते रहेंगे ?” बाबा बोले- “भाई! इतने में ही घबरा गए। जिन ग्रामीण जनता की हमने इतनी उपेक्षा की, उन्हें वर्षों अज्ञान के अंधकार में भटकाए रखा, उनमें संस्कार निर्माण करने के लिए उतनी ही प्रतीक्षा भी करनी पड़ेगी। निस्स्वार्थ भाव से धैर्यपूर्वक सेवा करने पर उनमें स्वच्छता का संस्कार अवश्य ही पैदा होगा।
” यही हुआ। एक वर्ष के अंदर वे उस आस-पास के सौ गाँवों को अपना कार्यक्षेत्र बनाकर, उन्हें सुसंस्कारी बना सकने में सफल हुए।
3. समाजसेवा
Moral Stories – एक बड़े प्रदेश के मंत्री थे। वे अच्छे चिंतक एवं प्रभावी वक्ता थे, परंतु उनका चिंतन एवं व्यक्तित्व बड़े ही विकृत थे। तब भी समाजसेवा एवं सुधार के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध बताने में संकोच न करते। कोई पूछता तो वे कहते – “हम जनता के विचारों को जाग्रत एवं परिमार्जित करते हैं।
उन्हें ठीक दिशा दिखाना और उस पर चलने की प्रेरणा देना हमारा काम है।” एक बार वे एक गाँव में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक विख्यात संत की चर्चा सुनी तो वे भी दर्शन हेतु पहुँच गए। जाते ही साधु ने मंत्री जी को गोबर उठाकर लाने की आज्ञा दी ।

Moral Stories – मंत्री जी साधु के इस व्यवहार से बहुत खिन्न हो गए, पर वे हँसकर उठे और • किसी तरह गोबर उठा लाए। साधु बोले-“इसे यहीं रख दो और वह पुस्तक उठाकर ले आओ और उसे पोंछ दो।” मंत्री जी बोले – “मैं हाथ धो लूँ महाराज ? पुस्तक में गोबर लग जाएगा तो वह और भी गंदी हो जाएगी।
” साधु गंभीर स्वर में बोले – “एक किताब उठाने में तो तुम यह देखते हो कि गंदे हाथों से किताब – गंदी हो जाएगी, किंतु इतने बड़े समाज के दोष दूर करने चले हो और तुम अपने अंतस् की गंदगी नहीं देखते हो ? इस गंदे मन के साथ तुम जहाँ भी जाते हो, उनी ही बुराई फैलाते हो।
” मंत्री जी को साधु की महानता व अपनी क्षुद्रता का एहसास हो गया। पहले अपने दोष दूर करो, तब समाज के दोष दूर करने चलो। वस्तुतः आत्मसाधना ही समाजसेवा की कुंजी है।
4. स्वामी दयानंद
Moral Stories – एक दिन पंडित ताराचरण शास्त्रार्थ हेतु स्वामी दयानंद के पास पहुँचे। उस समय दयानंद जमीन पर एक आसन पर बैठकर कुछ लिख रहे थे। उन्होंने ताराचरण को अपने पास एक आसन पर बैठने को कहा। ताराचरण को अपनी विद्वत्ता का बहुत अभिमान था। वे स्वयं को स्वामी दयानंद से श्रेष्ठ मानते थे।

उन्हें उनके साथ जमीन पर बैठने में अपना घोर अपमान महसूस हुआ। इसलिए वे खड़े ही रहे। स्वामी दयानंद उनके मनोभाव को ताड़ गए। उन्होंने कहा -“पंडित जी मात्र ऊँचे आसन पर बैठने से कोई महान नहीं होता।
महानता तो त्याग, परोपकार, विनम्रता जैसे गुणों से तय होती है। व्यक्ति गुणों से महान बनता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं।” स्वामी दयानंद की बात सुनकर पंडित ताराचरण लज्जित हो गए और उनकी बगल वाले आसन पर बैठ गए।
5. लोभ का दुष्परिणाम
Moral Stories – एक गिद्ध था । उसके माता-पिता अंधे थे। गिद्ध प्रतिदिन अपने साथ साथ अपने माता-पिता के भोजन की भी व्यवस्था जुटाता । एक दिन वह किसी बहेलिये के जाल में फँस गया। वह बेहद दुःखी हुआ कि मैं मर जाऊँगा तो माता-पिता का क्या होगा ? वह जोर-जोर से विलाप करने लगा। बहेलिये ने उसके रोने का कारण पूछा तो गिद्ध ने अपनी व्यथा कही।
बहेलिया बोला “गिद्धों की दृष्टि तो इतनी तेज होती है कि सौ योजन ऊपर आसमान से भी देख लेती है, लेकिन तू जाल को कैसे नहीं देख पाया ?” गिद्ध बोला –”बुद्धि पर जब लोभ का परदा पड़ जाता है तो उसे ठीक-ठीक नहीं दिखाई देता ।
जीवनभर मांस पिंड के पीछे भागते-भागते मेरी नजर को अब उसके सिवाय कुछ और दिखाई ही नहीं देता। इसी कारण मैं तेरा जाल नहीं देख पाया ।” बहेलिये को गिद्ध की ज्ञानभरी बातें अच्छी लगीं।
उसने कहा- “गिद्धराज ! जाओ मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। अपने अंधे माता-पिता की सेवा करो । तुमने मुझे –
लोभ का दुष्परिणाम बतला दिया ।”
6. पंडित रामनाथ
Moral Stories – तर्कशास्त्र के विद्वान पंडित रामनाथ ने नवद्वीप के पास एक निर्जन वन में विद्यालय स्थापित किया था। उसमें वे विद्यार्थियों को शास्त्रज्ञान दिया करते थे। उस समय कृष्णनगर में महाराज शिवचंद्र का शासन था।
उन्हें पता लगा कि परम • विद्वान पंडित रामनाथ गरीबी में दिन काट रहे हैं तो उनकी सहायता के उद्देश्य से वे वहाँ पहुँचे। उन्होंने पंडित जी से पूछा- “मैं आपकी क्या मदद करूँ ?”
पंडित जी बोले – “भगवत्कृपा से मुझे कोई अभाव नहीं ।” राजा बोले -“मैं घर खरच के बारे में पूछ रहा हूँ।” पंडित जी ने कहा- “इस बारे में तो गृहस्वामिनी ही अधिक जानती हैं, उन्हीं से पूछें।”

राजा ने गृहस्वामिनी के पास जाकर पूछा- “माताजी! घर खरच हेतु कोई कमी तो नहीं है ?” उन परम साध्वी ने कहा- “महाराज! भगवद्भक्तों को क्या कमी हो सकती है ?” राजा बोले – “फिर भी माताजी!” साध्वी बोलीं – – “महाराज! कोई कमी नहीं है। पहनने को कपड़े हैं, सोने के लिए बिछौना है। खाने के लिए विद्यार्थी भोजन ले आते हैं।
भला इससे अधिक की जरूरत भी क्या है ?” राजा ने आग्रह किया – “देवी! हम चाहते हैं कि आपको कुछ गाँवों की जागीरें – प्रदान करें। इससे होने वाली आय से गुरुकुल भी ठीक तरह से चल सकेगा और आपके जीवन में भी कोई अभाव नहीं रहेगा।
” उत्तर में ब्राह्मणी मुस्कराते हुए बोलीं – “परमात्मा ने प्रत्येक मनुष्य को जीवनरूपी जागीर पहले से ही दे रखी है। जो जीवनरूपी जागीर को सँभालना सीख जाता है, फिर उसे कोई अभाव नहीं रहता।” राजा निरुत्तर होकर लौट गए।
7. लॉर्ड बायरन
Moral Stories – एक लड़का अपने घर जा रहा था। रास्ते में उसने देखा कि दो लड़के आपस में “क्यों भाई! तुम झगड़ रहे थे। उनमें से बलवान लड़का कमजोर लड़के को लकड़ी से पीट रहा था। रास्ते चलने वाले लड़के ने बलवान लड़के के पास जाकर पूछा इसको कितने बेंत लगाना चाहते हो ?” किसी अपरिचित लड़के को बीच में पड़ते देख बलवान लड़के का क्रोध और तेज हो गया।

उसने कहा- “क्यों ? तुम्हें क्या मतलब ? तुम क्या कर लोगे ?” राह चलता लड़का बोला – “भाई! मैं तुमसे अधिक बलवान तो हूँ नहीं, जो इस कमजोर को बचाने के लिए लड़ सकूँ, लेकिन इतना चाहता हूँ कि तुम इस कमजोर लड़के के शरीर पर जितने भी बेंत मारना चाहते हो, उससे आधे मेरी पीठ पर लगा दो। इस तरह इसका आधा कष्ट मैं बाँट लूँगा ।
” बलवान लड़का अपने हाथ की लकड़ी फेंककर चला गया। पिटने वाले लड़के की मुसीबत टल गई। वही राह चलता लड़का बड़ा होकर अँगरेजी का प्रसिद्ध कवि लार्ड बायरन के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
8. संत स्वामी कृष्ण महाराज
Moral Stories – संत स्वामी कृष्ण महाराज वृंदावन के एक आश्रम में रहकर धर्म प्रवचन कर रहे थे। वे सदैव सभी को सत्प्रेरणाएँ देते रहते थे। एक दिन देवोत्थान एकादशी का पर्व था।
कुछ साधु जन आश्रम के संचालक के साथ झगड़ने लगे; क्योंकि एकादशी -उपवास की खाद्य सामग्री तैयार होने में देर हो गई थी। स्वामी जी ने जब यह दृश्य देखा तो बहुत दुःखी हुए।
स्वामी जी ने क्रुद्ध साधुओं से कहा- “आप लोग उपवास का सच्चा अर्थ ही नहीं समझ पाए हैं। उपवास का अर्थ है-‘प्रभु के समीप वास करने की साधना करना ।’ उपवास के नाम पर स्वादिष्ट भोजन करना, प्रभु की समीपता से दूर ले जाने वाला कार्य है। आप लोग साधु होकर झगड़ा कर रहे हैं।
यह शोभनीय नहीं है।” यह सुनकर सभी साधुओं को अपनी गलती पर पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने इसके लिए स्वामी जी से क्षमा माँगी। उन्हें उपवास का सच्चा अर्थ समझ में आ गया था।
9. राजहंशो कि टोली
Moral Stories – राजहंस प्रतिवर्ष सुदूर देशों का प्रवास किया करते और कठोर शीत के चतुर्मास समाप्त होते ही मानसरोवर वापस आ जाते थे। ऐसे ही प्रवास के दौरान राजहंसों की टोली समुद्रतट पर कोणार्क राजवंश के उद्यान पर उतरी।
वहाँ का माली इन राजहंसों का प्रतिवर्ष आतिथ्य करता था। इस बार जब राजहंस लौटने लगे तो माली रास्ते के लिए भी कुछ देने लगा तो राजहंसों ने मना करते हुए कहा – “तात! संचय पाप है।
यह खाद्य अभावग्रस्तों को दे देना। कुछ भी मिले, कहीं से भी मिले को उदरस्थ कर लेना काकवृत्ति वाले घटिया लोगों का काम है।”

राजहंस के ये वचन वहीं पास के वृक्ष पर बैठे कौवे ने सुन लिए। वह पंख फुलाता हुआ राजहंसों के पास आकर उन्हें भला-बुरा कहने लगा और बोला “राजहंसो ! तुम्हें अपनी श्रेष्ठता का अभिमान है ।
मुझसे प्रतियोगिता करो। इस विशाल समुद्र को पार करने की जिसमें शक्ति होगी, वही श्रेष्ठ माना जाएगा।” राजहंसों ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना और हंसों के साथ उड़ने लगा।
आगे-आगे कौवा और पीछे राजहंसों की टोली, कौवा जल्दी ही थक गया । वह गिरकर समुद्र में डूबने वाला ही था कि राजहंसों को दया आ गई और उन्होंने उसे अपनी पीठ पर बैठाकर पीछे लौटकर उसके स्थान तक पहुँचा दिया। राजहंस् vec9lcl-^ अपनी शक्ति से बढ़कर प्रदर्शन उचित नहीं होता, इससे अनर्थ हो सकता है।
मिथ्या अभिमान नहीं करना चाहिए।” इतना कहकर राजहंसों की टोली अपनी यात्रा पर उड़ चली।
10. भगवान बुद्ध
Moral Stories – भगवान बुद्ध सरस्वती नदी में विहार कर रहे थे। पास की केवट बस्ती के कुछ मल्लाहों ने स्वर्ण-वर्ण की एक अद्भुत मछली पकड़ी। मल्लाहों ने ऐसी मछली पहले नहीं देखी थी। वे मछली को लेकर राजा के पास गए। राजा को भी कुछ समझ नहीं आया तो वे उसे भगवान बुद्ध के पास ले गए। राजा ने पूछा –
“भंते! इस मछली का वर्ण स्वर्ण का कैसे है ? और इसके मुख से इतनी दुर्गंध क्यों आ रही है?” बुद्ध ध्यानपूर्वक मछली को देखकर बोले- “यह साधारण मछली नहीं है। यह कश्यप बुद्ध के शासनकाल में कपिल नामक महापंडित भिक्षु था। इसने अपने गुरु को धोखा दिया, उसी पाप के परिणामस्वरूप ऐसा हुआ है।

” बुद्ध ने कहा-“अपने विगत जन्म का पाप याद करो।” मछली बोली-“हाँ! मैं ही कपिल हूँ।” उसकी आँखों में पश्चात्ताप के आँसू भर गए। आगे कोई शब्द नहीं निकला। वह उस क्षण में खो गई, जब उसने गुरु को धोखा दिया था।
तभी उसके प्राण निकल गए। पर अब उसमें से दुर्गंध के स्थान पर सुगंध निकल रही थी। पाप का फल इनसान को कभी-न-कभी भुगतना ही पड़ता है।
11. राजकुमार
Moral Stories – राजकुमार नीरव के लिए महर्षि ऐलुष ने आश्रम में रहने का सामान्य प्रबंध कर दिया। उस दिन पहली बार उन्होंने सादा भोजन किया। आश्रम की जीवनपद्धति बहुत कष्टपूर्ण थी ।
इतना रूखा जीवन उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था, इसलिए अरुचि होना कुछ स्वाभाविक ही था। सोने के लिए जाने से पहले एक अन्य स्नातक से राजकुमार ने पूछा- “आप कहाँ से आए हैं?
आश्रम में आपको कितने दिन हो गए ?” स्नातक ने उत्तर दिया- “मित्र! मैं उपकौशल का राजकुमार और यह मेरा समापन वर्ष है।” इसके आगे बात न हो सकी।
राजकुमार नीरव ने फिर विश्राम किया। सूर्योदय से दो घड़ी पहले जब स्नातक जागे, प्रार्थना हुई, तो नीरव की भी नींद टूटी। आश्रम का नियम था कि सभी स्नातक भिक्षाटन के लिए जाते थे।

नियम के बारे में जानकर नीरव का अहं भाव जाग पड़ा था। राजकुमार और भिक्षा माँगे। उनके अंतःकरण ने प्रतिवाद किया, • किंतु वह भिक्षापात्र लिए एक गाँव में गए। किसी के दरवाजे पर जाते उसे लज्जा हो रही थी ।
Moral Stories – गाँव के प्रमुख की कन्या विद्या ने उस संकोच को पहचान लिया। उसने एक मुट्ठी धान्य लिया और नीरव के समीप ले जाकर भिक्षापात्र में डालने के बजाय जमीन पर गिरा दिया ।
हतप्रभ नीरव ने नैराश्य शब्दों में विद्या से पूछा – “देवी! यदि अन्न फेंकना ही था तो आप उसे यहाँ तक लाई ही क्यों ?” विद्या ने कहा ‘तात्! मैं ही क्या, सारा संसार ही ऐसा किया करता है।
हम जिस उद्देश्य से दुनिया में आते हैं, उसे पूरा नहीं करते, तो यह धान्य बाहर गिराने जैसा ही अपराध हुआ या नहीं ?” विद्या के उदाहरण ने नीरव की आँखें खोल दीं और अगले ही क्षण वह आत्मपरिष्कार की साधना हेतु संलग्न हो गया। –
12. भगवान बुद्ध
Moral Stories – भगवान बुद्ध कपिलवस्तु पधारे। धर्मपत्नी यशोधरा का त्याग ही उन्हें इस स्थिति तक पहुँचा पाया था, यह भी उन्हें स्मरण था। वे महल पहुँचे और स यशोधरा से पूछा—“यशोधरे! कुशल से तो हो ?” ”हाँ स्वामी!” चिरप्रतीक्षित स्वर सुनकर यशोधरा का हृदय गद्गद हो उठा। “स्वामी नहीं, भिक्षु कहो यशोधरे!
मैं अपना धर्म निभाने आया हूँ। बोलो तुम कुछ भिक्षा दे सकोगी ?” बुद्ध के आदेश व आग्रह को सुन यशोधरा कुछ क्षणों के लिए विचारमग्न हुई व दुःखित होती कहने लगी- “अब बचा ही क्या है देने के लिए? अपने दांपत्य की स्मृतियों को छोड़कर और कुछ भी तो नहीं है, जो देने योग्य हो ।”
Moral Stories – अपने मनोभाव अभिव्यक्त कर यशोधरा ने बुद्ध की प्रशांत छवि को निहारा व कुछ क्षण निर्विचार की अवस्था में उसके चेहरे पर निश्चय के भाव उभरे और बोली –”भंते! अपने पूर्व संबंधों को ही दृष्टिगत रखकर क्या आप भी कुछ प्रतिपादन कर सकेंगे ?” “भिक्षु धर्म की मर्यादा का उल्लंघन न होता होगा तो अवश्य करूँगा।

आर्ये!” बुद्ध ने आश्वासन दिया। यशोधरा ने अपने पुत्र राहुल को पुकारा और तथागत की ओर उन्मुख होकर बोली – “तो भगवन्! राहुल को भी अपनी पितृ-परंपरा निभाने देकर उसे अपना अधिकार पाने दीजिए।’
बुद्ध की मौन स्वीकृति पाकर वह राहुल से बोली – “जाओ पुत्र! अपनी पितृ-परंपरा का अनुकरण करो। बुद्ध की शरण में, धर्म की शरण में, संघ की शरण जाओ।” माता के आदेश व पिता के समर्थन को देख उत्साहित व आनंदित राहुल के समवेत स्वरों में गूँज उठा – बुद्धं शरणं गच्छामि।
यशोधरा एवं सिद्धार्थ की श्रेष्ठ संतति राहुल भी इसी परंपरा में सम्मिलित हो गए, जिसे स्वयं सिद्धार्थ – गौतम बुद्ध ने आरंभ किया था। पति के अभाव में भी अपनी संतति को उच्चतम संस्कार देने का श्रेय यशोधरा ने पाया व गौरवान्वित हुई ।
13. कश्मीर नरेश
Moral Stories – कश्मीर नरेश चंडापीड़ अपनी उदारता, विद्वत्ता और न्यायप्रियता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार उन्होंने देवमंदिर बनाने का संकल्प लिया। इस हेतु जिस भूमि का चयन किया गया, उसके एक भाग में एक चर्मकार की झोंपड़ी थी ।
मंत्रियों ने मुँहमाँगी कीमत देकर वह जमीन खरीदनी चाही, पर चर्मकार ने इनकार कर दिया। बात राजा तक पहुँची।
राजा ने चर्मकार को बुलाकर जमीन की मुँहमाँगी कीमत देने को कहा और यह भी कहा – “देवमंदिर के निर्माण में यह बाधा डालना पाप है ।”

चर्मकार बोला – “महाराज ! यह मेरे पूर्वजों की भूमि है, इसलिए मैं इसे नहीं छोड़ सकता, परंतु देवमंदिर बनने के कार्य में बाधा डालना भी पाप है। यदि आप मेरे यहाँ पधारकर मंदिर बनवाने के लिए मुझसे भूमि माँगेंगे तो मैं इसे दान में दे दूँगा ।
इससे मुझे और मेरे पूर्वजों को भी दान का पुण्य प्राप्त होगा।” राजा ने तब उसे बिना कुछ कहे विदा कर दिया, परंतु अगले ही दिन उन्होंने चर्मकार की झोंपड़ी में जाकर उससे भूमि दान में देने की प्रार्थना की।
चर्मकार ने भूमि दान कर दी। धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में अहंकार को महत्त्व नहीं देना चाहिए, यह राजा ने अपने आचरण से सिद्ध कर दिया।
14. धर्म और अधर्म
एक बार धर्म और अधर्म दोनों अपने-अपने रथ में बैठकर कहीं जा रहे थे। तभी तू उन दोनों के रथ एक ही राह में आमने-सामने हो गए। अब कौन दूसरे के लिए रास्ता छोड़े, इस पर उनमें विवाद छिड़ गया।
धर्म ने अधर्म से कहा- “भाई! तू अधर्म है और मैं धर्म हूँ। मेरा मार्ग ठीक होता है। मैं पुण्यदायक और सभी के द्वारा पूजित व प्रशंसित हूँ, इसलिए मार्ग दिए जाने योग्य मैं ही हूँ।” अधर्म बोला- “हे धर्म! मैं अधर्म हूँ और इसलिए मार्ग दिए जाने योग्य मैं ही हूँ।” अधर्म पुनः बोला – “हे धर्म! मैं अधर्म हूँ और निर्भय व बलवान हूँ।
मैंने आज तक कभी भी किसी को मार्ग नहीं दिया। यह मेरे स्वभाव के विरुद्ध है। मैं तुझे मार्ग कैसे दे सकता हूँ ?” धर्म ने फिर समझाया -“देखो भाई! लोक में पहले धर्म का प्रादुर्भाव हुआ, बाद में अधर्म का । धर्म ही ज्येष्ठ है, धर्म ही श्रेष्ठ है, सनातन है। इसलिए हे कनिष्ठ! तू मुझ ज्येष्ठ के लिए मार्ग छोड़ दे।
” इस पर अधर्म बोला – “ये सब कोई उचित कारण नहीं हैं। आओ, युद्ध करें। जिसकी जीत हो, रास्ता उसी का।” फिर धर्म ने समझाने की कोशिश की- “मैं चारों दिशाओं में फैला हुआ महाबलवान, यशस्वी व अतुलनीय, परम गुणवान हूँ। तू मुझसे कैसे जीतेगा ?” अधर्म बोला – ‘लोहे से सोना पिघलता है, सोने से लोहा नहीं।
आज अधर्म ही धर्म को पराजित 16 करेगा।” धर्म बड़ा दुःखी हो गया। धर्म ने कहा- “मैं युद्ध नहीं करना चाहता। मैं तेरे वचनों के लिए तुझे क्षमा करते हुए जाने का मार्ग देता हूँ।” सज्जन लोगों की यही पहचान होती है।
15. सिद्ध पुरूष
एक राज्य में एक सिद्धपुरुष रहते थे, जिनका नाम अपिकुरु था । वे एक छोटे-से उपवन में कुटिया बनाकर रहते थे। vecd सदा प्रसन्नचित्त रहते थे। राजा ने उनके बारे में सुन रखा था। एक बार राजा को उनसे मिलने की इच्छा हुई ।

राजा ने कहा—“हम आपको बहुमूल्य उपहार देना चाहते हैं।” अपिकुरु ने कहा- “महाराज! हमें कोई आवश्यकता नहीं । जितना ने परमात्मा ने दिया है, उतने में मैं संतुष्ट हूँ ।” राजा यह सुनकर अपिकुरु की संतोषी वृत्ति के समक्ष नतमस्तक हो गए।
राजा ने अपिकुरु के पास जाकर पूछा – “आपके पास तो कुछ भी – नहीं है, फिर आप आनंदित कैसे रहते हैं ?” अपिकुरु बोले – “महाराज! आवश्यकता से अधिक संग्रह न करके परिश्रम से जो कुछ प्राप्त हो जाए, उसी में संतुष्ट रहना ही हमारे आनंदित रहने का रहस्य है।”