मैं केशव आदर्श आज एक नयी कहानी संग्रह के साथ उपश्तिथ हुआ हूँ | जिसे पढ़कर आप काफी रोमांचित और तेजवान महसूस करेंगे | इससे आपको काफी कुछ सिखने को मिलेगा | जिससे आप आदर्शवान बनेंगे |
ये निम्नलिखित हैं :-
- हिंदू कन्या
- माता का आदर्श
- भ्राता का आदर्श
- भक्त कन्या का आदर्श
- बहिन का आदर्श
हिंदू कन्या – नैतिक कहानियाँ
नैतिक कहानियाँ – सन् 1725 की घटना है। भारत सम्राट् मुहम्मद शाह दिल्ली के सिंहासन पर आसीन थे। बादशाह का मीरमुंशी एक वैश्य था। सनम, शराब, शतरंज और संगीत की सुहबत से वह मुसल्मान हो गया। हिंदू नाम था रामजी दास सेठ । मुसल्मानी नाम मिला-मियाँ अहमद अली रामजीदास की स्त्री मर चुकी थी।
घरमें केवल एक कन्या थी। नाम था- किरन । उसने अपनी कन्याको बहुत समझाया; परंतु वह मुसल्मान होनेपर राजी न हुई न हुई। अन्तमें काजीकी कचहरीमें अहमदने अर्जी दी कि ‘जिस वक्त मैंने अपना मजहब तब्दील किया था, उस वक्त मेरी लड़की नाबालिग थी। इस्लामी कानूनके मुताबिक मेरे मुसल्मान होते ही वह भी मुसल्मान हो गयी।
अब वह बालिग है, इसलिये उसे बाक़ायदा इस्लाम मजहब हासिल कर लेना चाहिये। उसे इनकार करनेका हक नहीं है। मगर वह इनकार करती है। लिहाजा सरकार सरकारी दबावसे उसे मुसल्मान बनाये। यही मेरी दिली तमन्ना है।’
काजीने किरनको कचहरीमें बुलाया। उस षोडशवर्षीया बालाने आकर अदालतको जगमगा दिया। लड़की अत्यन्त सुन्दरी थी। वह निर्भय खड़ी थी और उसकी त्यौरी चढ़ी हुई थी। काजी- तुम अहमद अली की लड़की हो?
किरन जी नहीं।
काजी-फिर किसकी हो?
किरन-सेठ रामजीदास की।
काजी- दोनों एक ही तो हैं?
किरन – जी नहीं। मेरा बाप तो उसी क्षण भर गया था, जिस क्षण उसने हिंदू-धर्म का त्याग किया था। काजी- अहमदअली तुम्हारा बाप नहीं है?
किरन – जी नहीं।
काजी- तुम उसके साथ रहना नहीं चाहती ?
किरन – जी नहीं। काजी- कहाँ रहोगी?
किरन- किसी हिंदू के घर रहना चाहती हूँ।
काजी-लड़की! गुस्से को थूक दो और समझ से काम लो। तुम्हारे हिंदू-धर्म से हमारा इस्लाम धर्म बढ़िया है। इस्लाम कहता है कि खुदा एक है- हिंदू-धर्म कहता है कि ईश्वर सैकड़ों हैं !
किरन – सैकड़ों नहीं-करोड़ों ! जितने जीव हैं, वे सब वास्तव में ईश्वर हैं, यही हमारे धर्म की शिक्षा है। हिंदू-धर्म कहता है कि ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार सूर्य और किरन! किरन भी तो सूर्य ही है। इसी प्रकार कहने के लिये जीव और ईश दो हैं- वास्तव में एक ही चीज है। हमारी गीता में यही लिखा है।
काजी- अगर तुम मुसल्मान हो जाओ तो तुम्हारा नाम बजाय किरन के शमाँ रख दिया जायगा। वजीर साहब के लड़के के साथ तुम्हारी शादी करा दी जायगी। इस वक्त तुम एक ‘अनाथ लड़की’ हो। फिर- ‘वजीरजादी’ कहलाओगी। भिखारिन से रानी बन जाओगी।
किरन-अपने धर्म में भिखारिन रहना अच्छा है-पराये धर्ममें जाकर रानी बनना अच्छा नहीं। वह ‘धर्मप्रियता’ नहीं-वह ‘धर्मनिश्चय’ नहीं, जो लोभ या भयसे बदला जा सके।
काजी-जिस वक्त तुम्हारा बाप मुसल्मान हुआ था, उस वक्त तुम्हारी
क्या उम्र थी?
किरन-तेरह साल। काजी- रजस्वला हुई थी या नहीं? किरन जी नहीं।
काजी- तब तुम उस वक्त नाबालिग थी?
किरन – जी हाँ । काजी-तब तो तुम इस्लामी कानूनकी दफ़ासे उसी वक्त मुसल्मान
हो चुकी कि जब तुम्हारा बाप मुसल्मान हुआ था। किरन—इस्लामी कानून इस्लामके सिरपर सवार हो सकता है, हिंदू धर्मपर नहीं। मैं इस कानूनको नहीं मानती।
काजी – ‘इस्लाम धर्मकी तौहीनमें इस लड़कीको जेल भेजो।’ बेचारी किरन शाही जेलखानेमें भेज दी गयी।
यह सनसनीखेज समाचार सारे शहर दिल्लीमें व्यापक हो गया। वैश्यसमाजने कुपित होकर सारा कारोबार बंद कर दिया। बाजारोंमें हड़ताल कर दी गयी। वैश्य समाजके नेताओंने किलेके नीचे जाकर धरना दे दिया। गोलमाल सुनकर बादशाहने खिड़की खोली पूछा ‘क्या मामला है?’ सेठोंने सारी कहानी सुनायी।
बादशाहने कहा- ‘इसी वक्त वह लड़की आपलोगोंकी सिपुर्दगीमें दे दी जायगी। कल हमारे दरबारमें यह मुकदमा पेश होगा, इतमीनान रखिये। मैं यह बात जानता हूँ कि जोर जुल्म करनेवाली बादशाहत बादलको छाँहकी तरह थोड़ी ही टिकती है।’
लड़की को लेकर सेठ लोग वापस चले गये।
दूसरे दिन बादशाह के दरबार में वह लड़की पेश की गयी। काजीजी भी बुलाये गये। काजीसे बादशाह ने पूछा
बादशाह- इस हिंदू लड़कीको, जो खुशी से इस्लाम कबूल नहीं करती, क्यों जबरन मुसल्मान बनाया जा रहा है? काजी- जहाँपनाह! शरहके कानूनसे यह लड़की उसी वक्त मुसल्मान हो गयी कि जिस वक्त उसका बाप मुसल्मान हुआ। यह
उस वक्त नाबालिग थी। रजस्वला नहीं हुई थी। बादशाह – रजस्वला होना ही बालिग होनेका प्रमाण नहीं है। ऐसी भी लड़कियाँ हैं, जो बालिग हैं, मगर रजस्वला नहीं हुईं।
काजी-गरीबपरवर! जो मुनासिब समझें, हुक्म दें। बादशाह – शरहमें यह भी लिखा है कि जबरन किसीको मुसल्मान नहीं बनाना चाहिये। इसी दफाके मुताबिक हम इस लड़कीको बरी करते हैं। सेठ घनश्याम दास जी को यह लड़की सौंपी जाती है। वे ईमानदार तथा अच्छी चाल-चलनके आदमी हैं। वे जहाँ चाहें, इस कन्याका विवाह कर सकते हैं। लिहाजा मुकदमा खारिज और मिसिल दाखिल दफ्तर !
कन्या सेठजीके साथ चली गयी।
दूसरे दिन थी जुम्मेकी नमाज जुम्मा मस्जिदमें एक लाख मुसल्मान जमा हुए। बादशाह भी गये थे। मुल्ला लोगोंने बादशाहको आड़े हाथों लिया और उनके फैसलेको तार-तार कर दिया। इस्लामी बादशाही वास्तवमें मौलवी लोगोंकी बादशाहत थी ।

बादशाहने देखा कि मामला बिगड़ा जाता है। कहीं ऐसा न हो कि मुझे तख्त और ताजसे भी हाथ धोना पड़े। नरम पड़ गये और बोले
बादशाह – आखिर आपलोग इस मामलेमें क्या चाहते हैं? मौलवी लोग – यह मामला मजहबका है-राजनीतिका नहीं। इस मामलेका आखिरी फैसला ‘जुम्मा मस्जिद’ की अदालत यानी ‘अंजुमने मौलाना’ ही कर सकती है।
बादशाह – तो अब क्या होना चाहिये?
मौलवी लोग उस लड़कीको फिर हिरासतमें ले लीजिये। कल उसकी पेशी जुम्मा मस्जिदकी अदालतमें होगी। आयन्दा धर्मके मामले में आप दखल न किया करें।
किरनको फिर जेलमें बंद कर दिया गया।
एक टाटपर बैठी किरन भविष्यको सोच रही थी । कटार लिये एक जल्लाद आया। किरन खड़ी हो गयी और बोली
किरन – तुम कौन हो? जल्लाद – मैं जल्लाद हूँ।
किरन – यहाँ क्यों आये?
ज० – तुमको मारने।
किरन – किसके हुक्मसे? ज० –
मौलाना लोगोंके हुक्मसे।
किरन-क्या हुक्म हुआ मेरे लिये ?
ज०-न रहे बाँस न बजे बाँसुरी किरन – बादशाहके हुक्मके खिलाफ ?
ज० – जुम्मा मस्जिदकी अदालत बादशाहोंके बनाने और
बिगाड़नेवाली अदालत है।
किरन – अच्छी बात
ज० – मुसल्मान हो जाओ या मरनेको तैयार हो जाओ! किरन-‘मरनेको तैयार हूँ। अपना हिंदू-धर्म नहीं त्यागूँगी । ‘ जल्लादने
कटार तानी ।
किरन – तुम मत मारना। मेरा बदन एक यवन नहीं ज० – फिर कौन मारेगा? छू सकता।
किरन – मैं खुद मर जाऊँगी। यह कटार मुझे दो। ज०- खूब! यह कटार तुमको दे दूँ ताकि यह तुम्हारे सीने
में जाकर मेरे संनिमें घुस जाये? चालाक तो तुम कम नहीं हो। किरन- मुझे कटार भी नहीं चाहिये।
जल्लाद – तो फिर कैसे मरोगी ? किरन ऐसे !
कहकर उस कन्याने अपना सिर इतने जोरसे पत्थरकी दीवालमें दे मारा कि वह खरबूजेकी तरह फट गया। खूनका फव्वारा कोठरी भरमें बरसने लगा। इस भयानक मौतको देखकर जल्लाद भी कॉप गया। बोला- ‘शाबाश!
हिंदू लड़की! शाबाश! हिंदू-धर्मके सिवा इस तरहसे मरना और कौन सिखा सकता है!’ शहरके सेठोंने लाश माँग ली। अरथीको खूब सजाया गया। कहते हैं कि उस कन्याके शवपर जनताने इतने फूल, फल, मेवा, बताशे और रुपये-पैसे न्योछावर किये जितने किसी शवपर नहीं हुए थे!
सन् १७२५ ईस्वीकी गरमीका मौसम था। किरन ने हकीकत राय की धर्मप्रियता जीत ली थी। हिंदू-संस्कृति का यही आदर्श है कि ‘प्राण भले ही चले जायें, अपना धर्म न जाने पाये! क्योंकि जो धर्मका हनन करता धर्म उसका हनन कर डालता है।’ धर्मपर न्योछावर होकर किरनदेवी अपना नाम सुनहरे अक्षरोंमें अमर कर गयी है।
माता का आदर्श
इतिहास प्रसिद्ध महारानी मदालसा का विवाह काशी नरेशस हुआ था। द्विरागमनमें जब वह पतिगृह आयी, तब एक दिन काशीनरेशन सहवासको इच्छा प्रकट की। उस समय आधी रातका समय था। पति की इच्छा पर मदालसा ने कहा
महारानी — मेँ ब्रह्मचर्यसे रहूँगी।
महाराज- तो विवाह क्यों किया था? महारानी-विवाह मेरी माताने कर दिया। पिताजी मेरे पक्षमे दे। महाराज – विवाहके बाद ब्रह्मचर्य सम्भव नहीं। महारानी – क्यों संभव नहीं? इस संसारमें कितने ही दम्पति आजन्म ब्रह्मचारी रहे हैं।
महाराज – परंतु मुझे तो राजकुमारकी प्रतीक्षा है। सिंहासन खाली महारानी- – आप अपना द्वितीय विवाह कर सकते हैं।
न हो जायगा?
महाराज – राजा लोग अनेक विवाह करते अवश्य हैं-किंतु काशी राजवंशमें एकपत्नीव्रतको ही संस्कृतिका आदर्श माना गया है। महारानी – जबतक मुझे संतोष न हो; मैं ब्रह्मचर्यसे रहने की प्रतिज्ञा
कर चुकी हूँ।
महाराज – आखिर तुमने ऐसी प्रतिज्ञा क्यों की, जबतक हम लोग संतान पैदा नहीं करेंगे, तबतक मातृ-पितृ ऋणसे मुक्त न हो सकेंगे। यह भी एक आदर्श है। हिंदू-संस्कृतिका यह संतानसम्बन्धी आदर्श है। महारानी—पुत्र पैदा करनेमें मुझे एक डर है।
महाराज- वह क्या?
महारानी-न मालूम पुत्र कैसा पैदा हो !
महाराज – (हँसकर) यह कोई डर नहीं है।
महारानी- क्यों?
महाराज- तुम सरीखी पवित्रहृदया माताका पुत्र और मुझ सरीखे
पवित्र पिताका पुत्र अपवित्र कैसे होगा? महारानी-स्वामिन् । वास्तवमें मैं अभक्त संतानसे घृणा करती है। ईश्वर-विरोधी संतानसे मुझे जलन है। मेरा स्वभाव ही ऐसा है। पुलस्त्य के
कलमें रावणकी भाँति यदि किसी कारणवश ईश्वरद्रोही पुत्र हुआ तो
मातृ-पितृ ऋण अदा होगा या और बढ़ जायगा ?
महाराज- अभक्त पुत्र न होगा।
महारानी – यदि हुआ तो ?
महाराज- तुम विचित्र महिला हो।
महारानी जी, मैं विचित्र स्त्री हूँ।
महाराज – तो तुम ही बताओ कि क्या करना चाहिये। महारानी – हम दोनोंको ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिये।
महाराज – सिंहासनपर कौन बैठेगा?
महारानी- आप।
महाराज – मेरे बाद?
महारानी – आप मरेंगे ही नहीं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहीं मरता है?
जो मर जाय- वह ब्रह्मचारी ही नहीं।
महाराज – हूँ ! यह कैसे?
महारानी – बजरंगबली ब्रह्मचारी थे। आज भी वे मौजूद हैं। नारद,
शुकदेव और दत्तात्रेय कब मरे थे? महाराज- मुझे तुम्हारी बातोंसे संतोष नहीं होता।
महारानी – (मुसकराकर) आखिर आप क्या चाहते हैं?
महाराज – संतान ।
महारानी- परंतु एक मेरी भी शर्त है। महाराज- वह क्या?
महारानी – संतानपर आपका कुछ भी अधिकार न होगा। उसकी शिक्षा-दीक्षा सर्वथा मेरे हाथमें रहेगी।
महाराज- स्वीकार है।
महारानी—मैं चाहे जो करूँ चाहे उसे मार ही डालूँ आप बीच में
कोई दखल नहीं देंगे। महाराज स्वीकार है।
महारानी-त्रिवाचक कहिये।
महाराज- मेरी संतानपर, उसकी माताका पूर्ण अधिकार मुझे स्व है। स्वीकार है। स्वीकार है।!! महारानी- ‘परमात्माको व्यापक और द्रष्टा मानकर में यह
करता हूँ- यह भी कहिये ! महाराज- परमात्माको व्यापक और द्रष्टा मानकर में यह प्रतिज्ञ प्र
करता हूँ। महारानी तो मुझे भी आपकी बात स्वीकार है।
सालभर बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ। महारानीने अपने कम देवताओं तथा महात्माओंके चित्र लगा रखे थे। राजकुमारके शिक्षक एक विरक्त ब्राह्मण बनाये गये। रानी भी उसे वैराग्यको शिक्षा देती थी।
राजा भी- ‘जिसमें तेरी रजा, उसीमें मेरी रजाके अनुसार ज्ञानोपदेश किया करते थे। फल यह हुआ कि बारह सालका होते-न-होते राजकुमार साधु बनकर महलसे निकल गया। आत्मानन्द नाम हुआ ”उसका।’
तीन साल बाद दूसरा लड़का पैदा हुआ। उसका भी वही हाल हुआ।

तीन साल बाद तीसरा लड़का पैदा हुआ। एक दिन राजा-रानीमें फिर विचित्र बातचीत हुई महाराज- इस लड़केको साधु मत बना देना। महारानी – अवश्य बनाऊँगी।
•महाराज- तब तो सिंहासन सूना-का-सूना ही रहेगा। संतान पै
करनेका लक्ष्य क्या था? महारानी – मैं आपसे प्रतिज्ञा ले चुकी हूँ।
महाराज- मैं वह प्रतिज्ञा अस्वीकार नहीं करता। परंतु तुमसे 3 प्रार्थना करता हूँ कि इस पुत्रको राजकीय शिक्षा दी जाय। इसकी शिक्षा
प्रबन्ध मेरे हाथोंमें दे दो। महारानी-अच्छी बात है।
इस तीसरे कुमारका नाम था- अशोककुमार। अशोककुमार एक सुयोग्य युवक हो गया तब राजा और
जब उनी उसे राजकाज सौंपकर वनमें तप करने चले गये। वे अपने बड़े कुमार आत्मानन्दके आश्रममें जा पहुँचे और वहीं रहने लगे। दूसरा कुमार
4 मालूम साधुओंके साथ कहाँ चला गया।
एक दिन आत्मानन्दने माता मदालसासे कहा
आत्मा० – माताजी! आप कभी-कभी बहुत चिन्तातुर हो जाती हैं। मदालसा- हाँ, मुझे तुम्हारे छोटे भाईकी चिन्ता सताती है।
वह राजकाजमें पड़ा हुआ ईश्वरको भूल रहा है। यों ही रहा तो वह मरकर अवश्य नरकमें जायगा। क्योंकि – ‘तपसे राज्य और राज्यसे नरक!’ आत्मा० – आपकी चिन्ता कैसे दूर हो सकती है?
माता- तुम अपने मामाके पास जाओ। उनकी सेना लेकर अपने छोटे भाईपर चढ़ाई कर दो। उसे पराजित करके खुद राजा बन जाना और उसे वनमें तपके लिये भेज देना। जब तुम राजा हो जाओ तब अपना विवाह कर लेना। एक पुत्र पैदा करना और उसे गद्दी देकर रानीके साथ यहाँ चले आना।
इस प्रकार मेरी कोई संतान मूर्ख और पापी न रह सकेगी। मेरे तीनों पुत्र इस प्रकार भगवद्धजन कर सकेंगे और हो सकेंगे। माताका आदर्श यही है कि जो जीव उसके गर्भमें आये- उसे मुक्त करा दे ! उसे पुनः-पुनः जननी जठरमें न आना पड़े। मुळ
गर्भ भी एक नरक है। आत्मा० – जो आज्ञा ।
आत्मानन्द अपने मामाके पास गया। उसने सेना लेकर काशीपर चढ़ाई कर दी। अशोककुमार हार गया और बंदी हुआ। छः मास बाद आत्मानन्द अपने भाईके पास जेलमें गया और बोला आत्मा०- राजन्! मैं आज आपका राज्य आपको लौटाने
आया हूँ।
अशोक०- (आश्चर्यसे) क्यों? आपने तो मुझे जीत लिया है। हस्तगत राज्य क्यों छोड़ना चाहते हैं? ऐसा तो कोई नहीं कर सकता। अनुभव आत्मा०- मैं संन्यासी था। मैंने सोचा कि शायद राज्यमें अधिक सुख होगा, इसीलिये आपपर चढ़ाई की थी।
परंतु इस छमाहीमें : हुआ कि मैं पहले ईश्वरकी गोदमें बैठा था और अब मायाकी गोद में बैठ गया हूँ। मुझे तो राजकाजमें कोई सुख प्रतीत नहीं होता। वह पक्का मूर्ख हैं, जो तप छोड़ राज्यकी अभिलाषा करे। स्वर्ग छोड़ नरकमे रहनेकी अभिलाषा करना मूढ़ता नहीं तो और क्या है? अशोक ०- तब तो मुझे भी तप करना चाहिये।
आत्मा०—जी नहीं, मैं तप करूँगा। आप अपना जंजाल सँभालें। इतना कहकर आत्मानन्दने राजमुकुट उतारकर अशोकके सिरपर रख दिया। अशोकने पुनः उसे उतारकर आत्मानन्दके सिरपर रखा और कहा अशोक० – आप तप कर चुके हैं, आप राज्य कीजिये। अपने पुत्रको गद्दी देकर फिर तप कर लेना। मुझे तप करने दीजिये।
आत्मानन्द भी यही चाहते थे। भाईके मुखसे यह सब कहलाने के
लिये ही उन्होंने नाटक रचा था। अशोककुमारको माता-पिताके पास भेज दिया गया। वहाँ जाकर उसने जाना कि उसे उसके बड़े भाईने ही पराजित किया था, सो भी माताकी आज्ञासे ।
आत्मानन्दने अपना विवाह किया। एक पुत्र भी पैदा हुआ। परंतु वह राजकाजमें ऐसा लवलीन हुआ कि माताकी आज्ञा ही भूल गया। वह राजकाजसे ही प्रेम करने लगा।
संन्यासिनीका रूप धारणकर एक दिन मदालसा काशीनरेशके महलमें जा पहुँची।
आत्मानन्दने सत्कार करके पूछा आत्मा०- मेरे राज्यमें अकाल क्यों पड़ गया है? संन्या० – राजाके पापसे अकाल पड़ता है।
आत्मा०- मैंने कौन-सा पाप किया? संन्या० – तुमने सबसे बड़ा पाप किया।
आत्मा० – वह कौन-सा ?
संन्या० – तुमने अपने माताको धोखा दिया है ! आत्मा० – हाँ, हाँ। मैं तो अपनी प्रतिज्ञा ही भूल गया था। संन्या० – अपने पुत्रको गद्दी देकर पत्नीके साथ अपनी माताके पास
चले जाओ। तब अकाल दूर होगा। उसी दिन राजाने अपने राजकुमारको राजतिलक दे दिया। वह संन्यासिनीके साथ वनमें चला गया।
आश्रममें पहुँचकर आत्मानन्दने जाना कि वह संन्यासिनी स्वयं उसकी माता ही थी । तबतक दूसरा राजकुमार विनयकुमार भी समस्त तीर्थोंका दर्शन करके वहाँ आ गया।
एक दिन तीनों पुत्रों और पतिके समक्ष महारानी मदालसाने यह वक्तव्य प्रकट किया
‘यदि एक माँ बुद्धिमान है, तो वह एक विशाल परिवार को बुद्धिमान बना सकती है। यदि माँ अज्ञानी है तो वह एक विशाल परिवार को नरक में भेज सकती है। महिलाएं सबसे बड़ी गलती यह करती हैं कि वे अमीर पतियों को पसंद करती हैं। उन्हें एक बुद्धिमान पति पसंद करना चाहिए। ”
हिंदू-संस्कृतिका आदर्श माताके लिये यही है कि वह अपनी किसी संतानको ईश्वर तथा धर्मके विरुद्ध न चलने दे। नहीं तो संतान स्वयं तो नरकमें जायगी ही, माता-पिताको भी नरकमें घसीट ले जायगी। आज मुझे पूर्ण संतोष है कि मेरे तीनों पुत्र तथा मेरे पतिदेव
हो सकता है?
‘हे दयालु ! हम पाँचोंको मुक्ति प्रदान करो!’
मेरे साथ तप कर रहे हैं! इससे बढ़कर एक साध्वी नारीका क्या सौभाग्य मैं जो अपने मातृ-आदर्शमें उत्तीर्ण हो सकी हूँ, उसमें मेरे पतिदेवने यथेष्ट सहायता पहुँचायी है। ईश्वरसे प्रार्थना करती हूँ
भ्राता का आदर्श
केवलपुरमें केवल एक बर ठाकुरोंका है। बड़े भाईका नाम स्वामसिंह और छोटे भाईका नाम रामसिंह। दोनोंमें अपार स्नेह। माता-पिता स्व चले गये थे। विवाह दोनों भाइयोंका हो चुका था। छोटे भाईकी मालती घरमें आयी तो अलग चूल्हा बनानेकी बात सोचने लगी। एक बार रातमें मालतीने अपने पतिसे कहा
मालती-तुम्हारे बड़े भाई साहब केवल पूजा-पाठ किया करते हैं और खेतीका सारा काम तुम करते हो।
राम सिंह: हिंदू संस्कृति में पूजा का कार्य मुख्य कार्य है।
खेतीका काम दूसरे दरजेका काम है। मालती-पूजा-पाठसे क्या होता है?
राम०- देवतालोग प्रसन्न रहते हैं।
मालती-देवता क्या करते हैं? राम० – खेतीके काममें सहायता देते हैं।
मालती-हल तुम चलाते हो, खाद तुम डालते हो, बीज तुम बोते
हो और सिंचाई तुम करते हो-देवता क्या करते हैं? राम० – खेतीके काममें देवतालोग सहायता न करें तो एक दाना
भी पैदा न हो।
मालती-सो कैसे?
राम० – धरती माता, सूर्यदेव, चन्द्रदेव, पवनदेव तथा इन्द्रदेवकी सहायतासे खेती होती है। ये लोग विरोधी हो जायें तो अच्छी खाद अच्छी जुताई एक तरफ रखी रहेगी।
मालती—इसलिये दिनभर देवताओंकी पूजा करना ही बड़े भाई साहबका काम हो गया है?
राम०- पूजा-पाठके अलावा वे और भी काम करते हैं।
मालती-सो क्या?
राम० – मुकदमोंका काम वही करते हैं। मालती-मुकदमे सालमें दो-एक आते हैं, सो तुम भी कर सकते हो। मिडिल पास किया है। कायदा कानून जानते हो।
राम० – घरका सारा इंतजाम बतलाते हैं। मालती-घरका इंतजाम मैं बतला दिया करूँगी। मालती- विचार करना भी कोई काम है?
राम० – उन्नतिके विचार बतलाते हैं।
राम: विचार ही काम है। इस दुनिया का राजा माना जाता है
है। प्रत्येक बातमें विचार है। विचारमें त्रुटि आयो कि सत्यानाश हुआ। मालती- मेरा विचार है कि मैं अलग चूल्हा बनाऊँ। तुम अपनी जमीन बँटा लो। रुपया-पैसा और जेवर बड़ी बहूके पास है, उसे भी आधा-आधा कर लो !
राम० – क्यों?
मालती-यों कि कल बाल-बच्चे होंगे और परसों उनका व्याह होगा; हमारी गुजर साथमें नहीं हो सकती। राम० – हिंदू-संस्कृतिका यह आदर्श नहीं है।
मालती-क्या आदर्श है? राम० – बड़ा भाई पिता-समान, वही घरका मालिक। बड़ी भावज
माता समान, वही घरकी मालकिन ।
मालती – और तुम?
राम० – सेवक, अनुचर, नौकर, दास!
मालती – और मैं?
राम० – सेविका, अनुचरी, नौकरानी और दासी।
मालती-कहाँ लिखा है?
राम० – रामायण में ।
मालती-आग लगे रमाइनमें और धुआँ उठे पराइनमें
राम० – हैं, हैं
मालती- (क्रोधमें भरकर) कैसी हैं, हैं? मैं दासी हूँ। जोरावरसिंहकी लड़कीको दासी लिखा है- रमाइनमें? मैं घरमें ‘रमाइन’ रखूंगी ही नहीं। कल सुबह उसे उठाकर तालमें फेंक दूंगी?
राम०—(हँसकर) अगर तुम रामायण नहीं मानोगी तो तुम हिंदू नहीं मानी जाओगी।
मालती तो कौन मानी जाऊँगी? राम० – कुछ भी नहीं। कोई जाति नहीं। मालती—कोई जाति नहीं? मेरी जाति है ठाकुर ! मैं ठाकुरकी
लड़की हूँ। असल क्षत्री – चौहानवंश! और तुम कहते हो कि मेरी जाति ही नहीं?
राम० – मालूम होता है कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। मालती – और तुम्हारा?
राम० – मेरा दिमाग खराब होनेका कोई कारण नहीं है। मालती मेरे खराब दिमागका कोई कारण है? राम० – कारण प्रत्यक्ष है, नहीं तो तुम ऐसे विचार ही क्यों करती? मालती- मेरे विचार ठीक नहीं- अच्छी बात है। कल मैं अपना
विचार दिखलाऊँगी।
राम० – क्या करोगी?
मालती – अब क्या ! अब तो मेरा दिमाग खराब ही है! जो जीनें आयेगा, वही करूँगी; क्योंकि मेरा दिमाग खराब है। अगर मेरा दिमाग खराब था तो मैंने दर्जा ४ कैसे पास किया था?
राम० – दर्जा ४ तो कोई चीज नहीं; यदि कोई संस्कृतमें एम्० ए० भी पास कर ले तो क्या होगा। जिसके ऐसे विचार हैं, उसका दिमाग तो खराब ही माना जायगा।
प्रातः हल लेकर रामसिंह खेत जोतने चले गये। मालती ने अपनी
जिठानीसे कहा
मालती-मेरा विचार अलग रहनेका है। इस घरमें चार कमरे हैं। दो तुम ले लो और दो हम । जिठानीका नाम था- माधवी। वह सकपकाकर बोली-‘देवरजीकी
राय ले ली है?’
मालती- उनकी रायसे मुझे कुछ प्रयोजन नहीं। वे मेरा दिमाग खराब बतलाते हैं। जोरावरसिंहकी लड़कीका दिमाग खराब है, यह उनकी
किताबमें लिखा है।
माधवी – मेरी समझमें तुम्हारी बात आयी नहीं, देवरानी ! मालती – आ जायगी। घबराओ मत। बर्तन कितने हैं? माधवी-कभी गिने नहीं।
मालती- लाओ, मैं गिनती हूँ। चार थाली, चार लोटे और चार कटोरे। दो-दो हो गये। यह लो अपने हिस्सेके बर्तन। माधवी – हिस्सा-बाँट हम-तुम नहीं कर सकतीं। मालती – और कौन करेगा?
माधवी -मर्द लोग।
मालती- मर्द जायें भाड़में मर्दकी नजरमें औरत पागल तो औरतकी नजरमें मर्द पागल। जब पागलपनका प्रस्ताव पास किया गया तब पागलपन ही सही। मैं भागकर इस घरमें नहीं आयी हूँ। मेरा विवाह होकर आया
है। मेरा हिस्सा है।
माधवी – मैं मानती हूँ कि तुम्हारा हिस्सा है।
मालती – तो फिर बहस किस बातकी? उन दो कमरोंमें तुम रहो । इन दो कमरोंमें मैं रहूँगी।
माधवी-अच्छी बात है।
मालती-आधे बर्तन ले जाओ।
माधवी – ले जाऊँगी।
मालती-ले कब जाओगी। अभी उठाओ। अनाज कितने बोरे हैं?
माधवी – सात बोरा।
मालती-आधा-आधा कर लो। रुपया-पैसा और जेवर भी निकालो। माधवी जरा गम खाओ। मैं पूजावाली कोठरीमें जाकर तुम्हारे जेठजीसे राय ले आऊँ ।
मालती- यह भी कह देना कि मैं वह देवरानी नहीं हूँ जो जेठजीके सामने डेढ़ हाथका घूंघट निकालकर कोठरीमें भाग जाती है। अगर जेठजीने इंसाफ न किया तो झाडू लेकर बात करूँगी।
मकानके बाहर पूजाकी कोठरी थी जो बैठकके बगलमें बनी थी। माधवीने जाकर देखा कि उसके स्वामी महादेवजीपर बेलपत्री चढ़ाते जाते हैं और ‘नमः शिवाय’ कहते जाते हैं।
बाँट कर रही है।
माधवीने सारा किस्सा कह सुनाया।
माधवी – आप यहाँ पूजा कर रहे हैं और घरमें देवरानी हिस्सा श्यामसिंह- क्या बात है?
श्याम० – बहूसे कह दो कि आजसे वही मालकिन है। सारा रुपया पैसा और जेवर उसे सौंप दो। वह पढ़ी-लिखी-होशियार है। तुमसे अच्छा प्रबन्ध करेगी।
माधवी भीतर गयी। रुपये-पैसे तथा जेवरवाला बक्स उठाकर
मालतीके पास रख दिया। मालती-जेठने क्या कहा?
माधवी – यह कहा कि बहू पढ़ी-लिखी है। आजसे वही घरकी मालकिन है। सारा माल – खजाना, घर-बार सब उसीको सौंप दो। यह लो घरकी चाबियोंका गुच्छा। ये बक्स तुम्हारे सामने हैं। मुझसे जो कहो सो करूँ।
मालती-धन-दौलतमें आधा हिस्सा तुम ले लो। माधवी – मैं एक पैसा नहीं लूँगी।
मालती- क्यों?
माधवी-स्वामीकी आज्ञा नहीं है।
मालती- स्वामीकी आज्ञासे अपना हिस्सा छोड़ दोगी?
माधवी – अवश्य छोड़ दूँगी।
मालती – इस घरके सब लोग पागल दिखलायी पड़ते हैं। जेठजी भी ‘स्वाहा स्वाहा’ करने लगे। जिठानी भी लीक पर लीक चलाने लगीं! यानी जो बात मैं कहूँगी, उसे कोई नहीं मानेगा- अपनी-अपनी बात मेरे सिरपर थोपनेके लिये सभी तैयार हैं। मैं न तो दूसरेका हिस्सा लूँगी और न अपना हिस्सा दूँगी।

माधवी-ऐसा ही कर लेना। जल्दी क्या है। आज अलग रोटी बना लो। कल हिस्सा-बाँट कर लेना। कल देवरको भी खेतपर न जाने दूँगी। चारों आदमी मिलकर हिस्सा कर लेना ।
यह बात मालतीकी समझमें आ गयी। उसने अलग एक चूल्हा बनाया। उड़दकी दाल बनायी। रोटी बनायी। दोपहरको रामसिंह घरपर आये। श्यामसिंह भोजन करके कमरेमें लेटे हुए ‘कल्याण’ पढ़ रहे थे। रामसिंह स्नान करके भोजन करने जो घरमें गये तो दो चूल्हे दिखलायी पड़े। मालतीने उनको अपने चौकेमें बुलाया; परंतु वे भावजके चौकेमें चले गये और बोले—’आज क्या बनाया है, भौजी ?”
माधवी – खिचड़ी बनायी है। राम० -आओ, परोसो ।
माधवी – बहूने सुन्दर उड़दकी धोई हुई दाल बनायी है। हींगसे छाँकी है। रोटी बनायी है-तिरबेनीकी। गेहूँ, जौ और चनेका आटा मिलाकर तिरबेनी रोटी बनायी है। वहीं जाकर खाओ।
राम०-अलग रोटी क्यों बनायी ? माधवी – कहती है कि अलग रहूँगी।
राम० – रहेगी तो रहे अलग। परोसो मुझे खिचड़ी। माधवी – उसे बुरा लगेगा।
राम- मैं उससे बाततक नहीं करूंगा।
माधवीने खिचड़ी परोस दी। रामसिंह खा-पीकर बाहर चले गये। मालतीने गुस्से में आकर रोटियाँ कुत्तेको डाल दीं। बेचारीको ‘एकादशी’ हो गयी।
रातको जब दोनों इकट्ठे हुए तब यों बातचीत हुई—
मालती-तुमने मेरे चौकेमें रोटी नहीं खायी और भावजके चौकेमें खिचड़ी खायी। राम०- कही एक बार कहूँ, कहो लाख बार और कहो तो पत्थरपर
लिख दूँ। मालती- क्या?
राम०- मैं अपनी स्त्रीको छोड़ सकता हूँ; परंतु अपने भाईको नहीं
छोड़ सकता। मालती- क्यों?
राम०
-हिंदू संस्कृतिका आदर्श ही ऐसा है। श्रीलक्ष्मणजीने भाईके
लिये पत्नीको चौदह वर्ष त्याग दिया था।
मालती-अच्छी बात है। तब मैं ही अपना हठ छोड़े देती हूँ। सुबह होते ही अपना चूल्हा फोड़ डालूंगी। सारे घरसे अलग रहकर मैं कौन-सा सुख पा लूँगी ?
राम० — अब तुम्हारा पागलपन दूर हो गया।
तबसे आजीवन मालतीने हिस्सा-बाँटका नाम न लिया। माधवी कोई काम मालतीकी सलाह बिना न करती थी। चाबियाँ भी बहूके पास ही रहती थीं।
भक्त कन्या का आदर्श
बुंदेलखंडमें बलभद्रपुर नामकी एक रियासत थी। वहाँ एक राजकुमारी पैदा हुई थी, जिसका नाम था विमलाकुमारी विमलाको एक गुरुजी संस्कृत तथा हिंदी पढ़ाते थे। दोपहरीको जब गुरुजी स्नान करके ठाकुरजीकी पूजा किया करते तब विमला एकटक ठाकुरजीको देखा करती। एक दिन विमलाने कहा
विमला – गुरुजी ! ये ठाकुरजी मुझे दे दीजिये गुरु-तुम क्या करोगी?
विमला – पूजन किया करूँगी। बातें किया करूँगी। गुरु-तुम अभी कन्या हो। गुड्डे-गुड्डीका ब्याह खेला करोगी। फिर बड़ी हो जाओगी तब तुम अपनी ससुराल चली जाओगी; ठाकुरजीकी पूजाका अवसर तुमको कभी न मिलेगा।
विमला – क्या कन्याका यही आदर्श है, गुरुजी ? गुरु— नहीं, कन्याका आदर्श तो दूसरा ही है। विमला- वह कौन-सा ?
गुरु-माता, पिता और भ्रातासे सद्व्यवहार रखना कन्याका प्रथम आदर्श है। गुरु तथा ईश्वरकी भक्ति रखना कन्याका दूसरा आदर्श है। पति तथा पुत्रकी सेवा करना उसका अन्तिम आदर्श है।
विमला – सबसे बड़ा आदर्श कन्याके लिये कौन-सा है? गुरु- सबसे बड़ा आदर्श तो माता-पिता, भ्राता, गुरु-शिष्य, पति पुत्र, पत्नी – सबके लिये एक ही है और वह है श्रीठाकुरजीकी भक्ति सीखना। विमला- क्यों?
गुरु-ठाकुरजी ही संसारके स्वामी हैं। हर एक जीव उनका नौकर है। जो नौकर अपने स्वामीकी सेवा नहीं करेगा, वह मेवा नहीं पायेगा। उसे कान पकड़कर निकाल दिया जायगा। विमला- तो ठाकुरजीकी सेवा करना सबका प्रधान आदर्श है?.
गुरु-हाँ, बेटी! यही सबका प्रधान आदर्श है। यदि तुम ईश्वरकी भक्त बनोगी तो तुम्हारे आचरण स्वयं धार्मिक रहेंगे। ईश्वरकी छविकी
छटाका नाम धर्म है। धर्म यानी कर्तव्य । विमला – तब तो गुरुजी ! मैं इसी सबसे बड़े आदर्शको मानूँगी;
बस, ये ठाकुरजी मुझे दे दो। गुरु-नहीं। ये तो मेरे ठाकुरजी हैं।
विमला – और मेरे ठाकुरजी ? गुरु-तुम्हारे ठाकुरजी कल आ जायेंगे। विमला- कैसे?
गुरु-कल सुबह मेरे साथ नर्मदाजी स्नान करने चलना। पाताल फोड़कर, नदीके द्वारा तुम्हारे ठाकुरजी आयेंगे।
गुरुजीने सोचा था कि नर्मदामें गोल-गोल पत्थरके टुकड़े पड़े रहते
हैं, उन्हींमेंसे एक उठाकर दे दूँगा। अपने ठाकुरजीकी प्रतीक्षामें विमलाको अपार आनन्द हुआ। प्रातः
दोनों हाथीपर चढ़कर नर्मदास्त्रानके लिये गये। गुरुजीने जो डुबकी मारी तो एक श्वेत पत्थरकी गोल मूर्ति उनके हाथमें थी । राजकुमारी चिल्लायी! ‘हमारे ठाकुरजी आ गये!’
गुरुजीने बाहर निकलकर ठाकुरजी दे दिये।
विमलाने अपने ठाकुरजीके लिये सोनेकी संदूकची बनवायी, रेशमी कपड़े बनवाये और जवाहराती जेवर बनवाये रोज फूल और धूप दीपके साथ पूजा करने लगी।
राजा और रानीने विमलाके उत्साहमें और भी योग दे दिया। जो जो उसने माँगा, राजा-रानी सब प्रसन्नतापूर्वक देने लगे। आजकलके मूढ़ माता-पिताकी तरह उन्होंने कन्याका भक्तिविलास रोका नहीं। पुत्र हो या पुत्री, हरिभक्तिसे किसीको रोकना नहीं चाहिये। इससे बढ़कर कोई पाप ही नहीं है। रामप्रेम रोकना ही महापाप है। कन्या तो जीव है, पशु-पक्षीतक रामसे प्रेम करते हैं।
विमला – गुरुजी ! ठाकुरजी तो आपकी कृपासे मिल गये; परंतु इनका नाम क्या है? गुरुजीने देखा कि कन्या बहुत सीधी है। सीधेको ‘सिलबिल्ला’ कहते
हैं ग्रामीण भाषामें । ठाकुर । गुरु-तुम्हारे ठाकुरजीका नाम है ‘सिलबिल्ले T बिमला – बिसमिल्ले ठाकुर ?
गुरु- वह तो फारसी भाषा हो गयी। सिलबिल्ले कहो ।
विमला- सिलबिल्ले ठाकुरजी !
एक दिन विमलाका विवाह हो गया। वह बारातके साथ ससुरालको चली। मार्गमें बारातने दोपहरी देखकर पड़ाव डाल दिया। राजकुमारीका पति पालकीके पास आया। राजकुमारीको अत्यन्त रूपवती देखकर बहुत प्रसन्न हुआ।
राजकुमार – इस सोनेकी संदूकचीमें क्या है? राजकुमारी – ठाकुरजी !
राजकुमार – देखूँ ।
राजकुमारीने चाबी लेकर ताला खोला। रेशमी कपड़ोंमें फूलों की
गद्दीपर पत्थरकी एक गोल बटिया रखी थी। राजकुमार हँसा। उसे नयी दुनियाकी हैवानी हवा लगी थी। ईश्वर कहाँ है और यदि है भी तो वह अजर-अमर सच्चिदानन्द व्यापक होगा और यह है नर्मदाकी बटिया । राजकुमारने कहा- ‘तुम बहुत सरल हो राजकुमारी!’
इतना कहकर उसने ठाकुरजी उठा लिये। वहीं एक कुआँ था। हँसकर राजकुमारने उस ठाकुरजीको कुएँमें डाल दिया और चला गया।
ससुराल पहुँचकर राजकुमारीने भोजन करना छोड़ दिया। केवल जल पीकर रहने लगी। हरदम ठाकुरजीका ध्यान। ‘हाय! हमारे सिलविल्ले ठाकुरजी कब मिलेंगे?’ यही चिन्ता । ससुरालवालोंने सोचा कि घरकी यादसे बहू भोजन त्याग बैठी है। एक रातको वह खिड़कीके द्वारा महलसे बाहर हो गयी। भागती हुई उसी कुएँके पास जा पहुँची, जिसमें ठाकुरजी पड़े थे।
राजकुमारी रोने लगी। उसने पुकारा – ‘सिलबिल्ले!’ आवश्यकतासे अधिक सीधे व्यक्तिको ‘सिलबिल्ला’ कहा जाता है देहाती भाषामें बहुत 1 सम्भव है कि ईश्वर भी आवश्यकतासे अधिक सीधा ‘व्यक्तित्व’ रखते हों। लिहाजा कुएँमेंसे जवाब आया- ‘वाह! मुझे यहाँ छोड़ तुम कहाँ चली गयी थी?’
राजकुमारी – बाहर आ जाओ ! आवाज – तुम्हीं यहाँ आ जाओ । राजकुमारी कुएँ में कूद पड़ी।
विमलाने देखा कि कुएँमें पानीकी जगह फूल-ही-फूल भरे पड़े हैं और बजाय पत्थरके साक्षात् ठाकुरजी विराजमान हैं। पीताम्बर, वनमाला, मोहनमुरली, मधुर मुसकान !
विमला- सिलबिल्ले!
ठाकुरजी – कहो, सिलबिल्ली !
विमला- मैं उस ठाकुरजीके विरोधी घरमें अब न जाऊँगी। ठाकुरजी- तो ठाकुरजीके माननेवाले घरमें चलोगी? विमला- नहीं, मैं तो अब तुम्हारे ही साथ रहूँगी। तुम्हीं मेरे सब कुछ हो।

श्रीकृष्ण- विमले! तुम राधारानीकी ‘सरलता’ से उत्पन्न हो। संसारकी समस्त स्त्रियाँ शक्तिके विविध अंगोंसे उत्पन्न हैं। आज कलके’ भयानक कलियुगमें तुम सी सरलकी गुजर नहीं हो सकती। सरलको लोग बेवकूफ समझते हैं। मजा यह कि हैं खुद बेवकूफ !
विमला- तुम्हारा घर कहाँ है?
श्रीकृष्ण – गोलोकमें!
विमला- वह कहाँ है?
श्रीकृष्ण- पृथ्वीके ऊपर चन्द्र, चन्द्रसे दूर सूर्य, सूर्यसे ज्योति,
ज्योतिके बाद गोलोक है।
विमला— बहुत दूर है।
श्रीकृष्ण – क्षणभरमें पहुँच चलेंगे।
इतना कहकर भगवान्ने विमलाके सिरपर हाथ फेरा। हाथके साथ ही उसकी आत्मा निकल आयी।
दोनों आकाशमार्गसे चले। यहाँ अपनी एक कहानी छोड़ गये।
जिन्ह कें रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥
बहिन का आदर्श
मेरठमें दो भाई रहते थे। बड़े भाईका नाम था रामनारायण और छोटेका नाम था जयनारायण एक बहिन थी- नाम था प्रेमा रामनारायण जमींदारीका काम करते थे। माता-पिता मर चुके थे। जयनारायणको उन्होंने पढ़ा-लिखाकर एम० ए०, एल-एल्०बी० करा दिया। वे वकालत करने लगे।
सबसे छोटी बहिन प्रेमा जब विवाहयोग्य हुई तब दोनों भाई उसके लिये वरकी खोज करने लगे। रामनारायण थे पुराने विचारोंके सनातनधर्मी, वे प्रेमाके लिये सनातनधर्मी घर वर खोजने लगे। जयनारायणको नयी दुनियाकी हवा लगी थी। वे तलाश करने लगे सुधारक घर और वर। इसी बातको लेकर दोनों भाइयोंमें अनबन हो गयी।
जयनारायणने वह घर छोड़ दिया। अपनी स्त्रीको लेकर दूसरे मुहालमें रहने लगे। रामनारायणने प्रेमाका विवाह एक सनातनधर्मी युवकके साथ कर दिया। जयनारायण न तो विवाहमें शामिल हुए और न एक पैसा उन्होंने खर्च किया। दोनों भाइयोंमें बोल-चालतक बंद हो गयी थी।
सावनके दिन थे। प्रेमा अपनी ससुरालसे वापस आ गयी थी। एक दिन शामके समय प्रेमा एक नीमके वृक्षपर झूला झूल रही थी। किसी कार्यवश उधरसे जयनारायण बाबू कहीं जा रहे थे। जयनारायणकी तरफ प्रेमाकी पीठ थी। उन्होंने बहिनको देख लिया; परंतु प्रेमाने उनको नहीं देखा था।
वकील बाबूने सुना- प्रेमा सावन गा रही थी ‘चंदनकी पटुली, रेशमकी डोरी,
कदमकी शाखा श्रीजयनारायण
मेरे भैया, पातली!
जिनकी बहिन – लाड़ली!’
वकील बाबूने सोचा-‘हैं। जिस बहिनको मैं भूल गया था, वह मुझे याद किये है। जिसके नामसे मुझे घृणा थी, वह मेरे नामको प्रेमसे स्मरण कर रही है!’
यह जरा सी बात जयनारायण बाबूको खटकने लगी। उनकी सारी शत्रुता हवा हो गयी। बहिन और भाईके लिये वे तड़पने लगे। हर समय चिन्तामें रहने लगे। खाना-पीना छूट सा गया। एक दिन जुकाम बिगड़ गया और चारपाईपर पड़ रहे।
एक सप्ताह बाद प्रेमाने सुना कि जयनारायण बहुत बीमार हैं। वह डरते-डरते बड़े भाईके कमरे में गयी और बोली प्रेमा- बड़े भैया! छोटे भैया बहुत बीमार हैं?
राम० – सुना तो मैंने भी है।
प्रेमा- आप देखने नहीं गये?
राम-ना
प्रेमा- क्यों? जिनको आपने पुत्र समान मानकर खिलाया पिलाया और लिखाया-पढ़ाया, उनको देखने भी नहीं गये?
राम० – वह बुलाता तो चला जाता !
प्रेमा – यदि न बुलायें? राम० – तो नहीं जाऊँगा ।
प्रेमा-मैं चली जाऊँ देख आऊँ?
राम०-जिसने तुम्हारे विवाहमें कदम नहीं मारा, तुम बिना बुलाये उसके घर कदम रखने जाओगी? मान-अपमानका भी विचार नहीं है? प्रेमा-मान-अपमान बार-बार आया-जाया करता है। भैया बार
बार नहीं मिलता।
प्रेमा रोने लगी।
राम० – तो रोती क्यों हो? मना नहीं करता। परंतु मैं खुद नहीं जाऊँगा। लो, अभी गाड़ी मँगाये देता हूँ। नौकर गया और एक घोड़ागाड़ी किराये कर लाया। प्रेमा बैठ
गयी। नौकर साथ गया। वह वकील साहबका घर जानता था। कमरेमें पहुँचकर प्रेमाने देखा कि पलंगपर छोटे भाई वेह पड़े हैं। एक तरफ उनकी स्त्री खड़ी है और दूसरी तरफ एक डा खड़ा है।
डाक्टर-केस होपलेस! मगर घबराना नहीं चाहिये। वकील बाबूकी स्त्रीका नाम था-रमा वह बोली रमा-होपलेस! फिर भी न घबराऊँ? इसके क्या मानी ? डाक्टर-एक उपाय भी है।
रमा- वह क्या?
डाक्टर – इनके शरीरका रक्त सूख गया है।
रमा- जी हाँ । शरीरका ढाँचामात्र रह गया है। डाक्टर-नसें खुलकर दिखायी दे रही हैं। रमा- खाते-पीते कुछ नहीं। कभी-कभी थोड़ी-सी चाय लेते हैं। डाक्टर – क्या कभी कुछ कहते भी हैं?
रमा- कुछ नहीं। कभी-कभी कह उठते हैं
‘जिनकी मैं लाड़ली !’
डाक्टर- इसका क्या मतलब?
रमा- मैं नहीं जानती।
डाक्टर – आई सी ! यही संनिपातका लक्षण
रमा- आप कौन-सा उपाय बतला रहे थे, डाक्टर साहब! मेरे पास जो कुछ है-सब ले लीजिये; परंतु इनके प्राण बचा दीजिये। डाक्टर – प्राण बचाना परमात्माका काम है। डाक्टरका काम है. कोशिश करना। वकील साहब खुद मेरे दोस्त हैं। मैं आपसे कुछ भी
लेना नहीं चाहता।
रमा-उपाय बताइये।
डाक्टर-उपाय कठिन है। बहुत कठिन है। रमा- कठिन से कठिन उपाय भी सरल हो जाता है।
डाक्टर एक छटाँक शुद्ध खून गाहिये। रमा-क्या कीजियेगा?
डाक्टर- वकील साहबके शरीरमें प्रवेश करा दूंगा। बस, फिर व
ठीक हो जायगा।
रमा-मेरे शरीरसे रक्त निकाल लीजिये।
डाक्टर आप पहले तो गर्भवती हैं और दूसरे आप कुश हैं। आप भी बीमार पड़ गयी तो
गर्भवतीका खून लेना ठीक नहीं। कहीं और भी परेशानी होगी।
‘मैं मोटी हूँ-मेरा खून लीजिये!’ प्रेमाने आगे बढ़कर डाक्टरसे कहा।
डाक्टर तुम कौन हो? प्रेमा-वकील साहबकी छोटी बहिन |
डाक्टर-आप मोटी हैं। बहिन हैं, इसलिये खून में सजातीयता भी है और खून साफ, शुद्ध तथा लाभप्रद है। रमा- आप रहने दीजिये।
प्रेमा- क्यों, भावज?
रमा- आपके विवाह में हमलोग शामिल नहीं हुए थे।
प्रेमा-सो क्या हुआ?
रमा- आपको हमलोगोंने एक पैसातक नहीं दिया।
प्रेमा-सो क्या हुआ?
रमा- आपको हमलोगोंसे घृणा नहीं है?
प्रेमा- नहीं।
रमा- क्यों?
प्रेमा-बहिनका आदर्श यह नहीं है कि वह किसी भूलके कारण अपने भाईसे घृणा करे। भाई चाहे कैसा भी हो वह भाई ही है। रमा-वास्तवमें हमलोगोंसे भूल हो गयी। प्रेमाभूल तो फिर भी दुरुस्त हो सकती है। भाई कहाँ मिलेगा? वह भाई कि जिसके लिये भगवान् रामतक रोये थे।
मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ॥ भाई साहब बनें रहेंगे तो मुझे मान भी दे सकते धन भी दे सकते हैं। या कुछ भी न दें-फिर भी वे मेरे भाई हैं। देना-लेना दूसरी चीज, प्रेम दूसरी चीज !

डाक्टर- आप खुशीसे अपना खून दे रही हैं?
प्रेमा- निःस्वार्थ तथा हार्दिक प्रसन्नताके साथ।
डाक्टर-एक छटाँक खून? प्रेमा-एक छटाँक-एक पाव-या जितने खूनसे भाईको आराम
हो जाये।
डाक्टर – शाबाश! बहिन हो तो ऐसी !
प्रेमा- किस जगहका खून लीजियेगा ? डाक्टर – हाथोंका खून अच्छा होता है। लेकिन शायद आपको
हाथोंके खूनसे तकलीफ हो। इसलिये पैरोंका खून डाल दिया जायगा। प्रेमा-पैरका खून! भाईके शरीरमें!
डाक्टर – तो फिर?
प्रेमा-मेरे कलेजेका खून लेकर मेरे भाईके कलेजेमें डाल दो,
डाक्टर साहब!
डाक्टर – शाबाश! बलिहारी है इस त्यागकी!
प्रेमा-देर मत कीजिये।
डाक्टर – आपके दोनों बाहोंकी नससे खून लिया जायगा। प्रेमा― चाहे जिस अंगको काट डालिये।
डाक्टरने दोनों बाँहोंसे एक छटाँक खून निकाला। प्रेमाने ‘उफ’ तक न किया। वकील साहबके शरीरमें वह खून प्रवेश करा दिया गया।
एक सप्ताहमें ही जयनारायण बाबू स्वस्थ हो गये। वे रामनारायणके कमरेमें आये, प्रेमा भी वहीं बैठी थी। जयनारायणने आकर रामनारायणके चरणोंपर अपना सिर रख दिया |
और रोने लगे। रामनारायणने उनको उठाया और छाती से लगा लिया। रामनारायणकी आँखें भी बरस रही थीं।
जय०- भाई साहब मेरी भूल क्षमा कीजिये। मैंने सुधारके भूतको
विदा कर दिया है।
राम०-क्षमा किया।
जय०- मुझे फिर अपने घरमें रहनेकी आज्ञा दीजिये। राम० – आज्ञा क्या देना, मकान तुम्हारा है। तुम्हीं चले गये थे।
मैंने कब कहा था कि मकानसे निकल जाओ। जय०- नहीं, आपने नहीं कहा था। आप पिताजीके समान हैं। आपने मुझे लिखाया-पढ़ाया और योग्य बनाया है।
राम०- आज ही आ जाओ।
जय० – प्रेमा बहिन !
प्रेमा- भैया!
जय०- मेरी हिम्मत नहीं पड़ती जो तुम्हारी नजरसे अपनी नजर सनमुख होड़ न सकत मन मोरा।
मिलाऊँ!
प्रेमा- क्यों?
जय०- मैं भाईका आदर्श भूल गया, परंतु तुम बहिनका आदर्श
नहीं भूली।
प्रेमा-हिंदू संस्कृतिके अनुसार बहिनका जो आदर्श है, उसीका पालन मैंने किया है। अपना कर्तव्य पालन किया है। इसमें यदि कोई तारीफ है तो मेरी नहीं-हिंदू-संस्कृतिकी तारीफ है।
दूसरे दिन जयनारायण बाबू इसी घरमें आ गये। तीन महीने बाद प्रेमाका द्विरागमन हुआ। वकील साहबने हजारों रुपये खर्च किये। बहिनको जेवर और कपड़े अलग दिये। बहनोईके चरण स्पर्श किये। घंटेभर उनसे बातचीत करके उनके दिलका मैल भी धो डाला। सच है- बहिन के प्रेम की थाह नहीं है।
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