Top 5 Best Short Moral Stories I Short Stories In Hindi | Moral Stories In Hindi

वाह बीरबल वाह! – किस्सा

Top 5 Best Short Moral Stories I Short Stories In Hindi | Moral Stories In Hindi – प्रस्तुत पाठ में बादशाह अकबर के नवरत्नों में स्थान व सम्मान प्राप्त रकमका किस्सा किया गया है। इस प्रसंग में राज्य में रह रहे एक कापारी के घर गोरी हो जाती है। अपनी बुद्धि से उस काग है और व्यापारी का सारा सामान वापस दिलवा देते हैं।

बादशाह अकबर के राज्य में एक सेठ व्यापारी के घर में चोरी हो गई। चोर उसका सारा धन, जेवर आदि चुराकर ले गए। घर में बरतन और कपड़ों के सिवाय बाकी कुछ नहीं बचा था। वह रातों-रात कंगाल हो गया था।

उसने राज्य के अधिकारियों को इसकी सूचना दी परंतु चोर का कोई पता न चला। इतनी बड़ी चोरी से बादशाह सलामत चितित हो उठे। बादशाह ने इस चोरी का पता लगवाने का निर्णय किया। उन्होंने बीरबल से सारा हाल कहकर

चोर को माल समेत पकड़ने का आदेश दिया। वीरवल ने बादशाह की आज्ञा का पालन किया। उन्होंने उस व्यापारी को बुलवाया और पूछा- “तुम्हें किसी पर संदेह है? यदि किसी पर संदेह हो तो स्पष्ट बता दो। घबराओ नहीं, तुम्हारी सारी धन-संपत्ति मिल जाएगी।”

व्यापारी को बीरबल की बातों से बहुत ढाढ़स बँधा। बादशाह भी उस समय वहाँ मौजूद थे।

“जहाँपनाह! मेरा यह अनुमान है कि नौकरों ने ही मिलकर यह काम किया है। बाहरी आदमी को इतनी जानकारी नहीं हो सकती, किंतु यह भी सच

है कि मैंने किसी को अपनी आँखों से ऐसा करते नहीं देखा इसलिए में किसी भी नौकर का नाम नहीं बता सकता।” व्यापारी ने उत्तर दिया।

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Akbar and Birbal Talking To Each Other

बीरबल ने सिपाही भेजकर व्यापारी के सभी नौकरों को बुलवाया। जब सभी नौकर आ गए तो बीरबल ने समान आकार की लकड़ी की बहुत-सी पट्टियाँ मँगवाई। उन पर मंत्र पढ़ने का योग करके एक-एक लकड़ी प्रत्येक नौकर को दे दी और कहा- “आज रात को ये लकड़ियां तुम लोग अपने-अपने पास रखो। कल सुबह लाकर मुझे दिखाना। जो कोई चोर होगा या

जिसकी मदद से चोरी हुई होगी, उसकी लकड़ी आधा इंच बढ़ जाएगी।” रियल के आदेश से राज्य कर्मचारियों ने व्यापारी के नौकरों को अलग-अलग कमरों में रख और उनकी देख-रेख के लिए सेवक नियुक्त कर दिए। उन नौकरों में जो नौकर वास्तव में चोर था, उसने अपने मन में सोचा कि यह लकड़ी बाद में

आधा इंच बढ़ जाएगी, तो मैं पहले ही क्यों न इसे आधा इंच काट दूं ताकि बढ़ने पर यह पूरी ही रहे। इस तरह मेरी कड़ी सबकी लकड़ियों के बराबर ही रहेगी। इस प्रकार दीवान बीरबल मुझे नहीं पकड़ पाएँगे। ऐसा सोचकर उसने तुरंत अपनी लकड़ी को आधा इंच छोटा कर दिया।

यहीं तो बीरबल की चाल थी। क्या कभी लकड़ी रातभर में अपने आप बढ़ सकती है? दूसरी सुबह बादशाह और बीरबल ने व्यापारी और नौकरों को बुलवाया। और ने सबको लकड़ियों को देखा। बीरबल ने चोर को पहचान लिया। उसे एकांत में व्यापारी चोरी हुआ माल मिल जाने पर ले जाकर सारी सच्चाई जान ली। बहुत खुश हुआ। चोर को दंड दिया गया। बादशाह वीरबल की होशियारी से बहुत प्रसन्न हुए।

कान का दर्द – वैज्ञानिक लेख

के सेाया गया है कि हम किस प्रकार अपने कानों को सुकेको जानकारी दी गई है

दीपिका के कान में सुबह से बहुत दर्द हो रहा था। उसने माँ को बताया। माँ ने देखा, कनपटी के पास कुछ सूजन भी थी। दीपिका के पिता जी ने भी देखा। वे दीपिका को डॉक्टर के पास ले गए।

डॉक्टर के माथे पर एक गोल शीशा लगा हुआ था। दीपिका सामने बैठी। डॉक्टर ने देखते ही कहा- “काम के अंदर बहुत मैल जम गया है।” फिर उसने पूछा- “तुमने कान में कुछ डाला भी था ?”

दीपिका डर गई। घबराहट में उसने ‘नहीं’ कह दिया। डॉक्टर हंसकर बोला- “देखो, यह रही माचिस की तीली। यह कान के अंदर ही रह गई थी।” दीपिका समझ नहीं पाई कि डॉक्टर को कान के भीतर कैसे दिखाई पड़ गया।

डॉक्टर ने दीपिका के पिता जी से कहा- “नर्स से इसके कान की सफाई करवा लीजिए, तब मेरे पास आइए।” दीपिका ने कमरे से बाहर निकलते ही पूछा- “पिता जी, ये डॉक्टर साहब कैसे हैं? इनके पास न थर्मामीटर है, न कान में लगाने का आला।”

“ये कान-नाक और गले के डॉक्टर हैं। इन्हें थर्मामीटर या स्टेथोस्कोप की आवश्यकता नहीं पड़ती। इनके औज़ार दूसरे होते हैं।” पिता जी ने कहा।

दीपिका ने कहा- “इन्हें कान के भीतर कैसे दिखाई पड़ता है?”

पिता जी ने बताया- “तुमने देखा होगा डॉक्टर के माथे पर एक शीशा लगा था। उस पर प्रकाश पड़ता है तो उसकी किरणें लौटकर कान के अंदर पड़ती हैं। इससे करन के अंदर का भाग चमकने लगता है। डॉक्टर के पास कुछ और औज़ार भी होते हैं जिनसे वह कान के भीतरी भाग को देख सकता है। “

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A Father is talking to his daughter

बातें करते हुए दोनों नर्स के कमरे में पहुंचे। नर्स ने दीपिका को एक स्टूल पर बैठा दिया और दीपिका से हँस हँसकर बातें करने लगी। बातों ही बातों में उसने धीरे धीरे पिचकारी से दीपिका के कान की सफाई कर दी। नीचे ट्रे में गंदगी के देले पड़े थे दीपिका को आश्चर्य हुआ कि उसके कान में इतना मैल था।

दोनों लौटकर डॉक्टर के कमरे में आए। डॉक्टर ने कहा- “ये दवाएँ चार दिनों तक लेनी है। दिन में तीन बार दबाएँ खानी है। इसी शीशी में कान में डालने की दवा है। दिन में तीन-चार बार दो-दो बूँदें कान में डालनी है। कान की सूजन ठीक डॉक्टर ने दीपिका से कहा- “कान में तिनका या माचिस की तीली कभी मत डालना। इसमें कान का परदा फट सकता है।

यह गंदी आदत है।” दीपिका ने धीरे से कहा- “डॉक्टर साहब, मैं तो केवल तभी तिनका डालती है, जब कार बहुत खुजलाता है।”

डॉक्टर ने कहा- “कान को धीरे से पकड़कर थोड़ा हिला लेने से खुजली मिट जाती है।

कान में बार-बार खुजली हो तो डॉक्टर को दिखाना चाहिए।” डॉक्टर दीपिका को दीवार पर टंगे कान का चित्र दिखाकर समझाने लगे- “कान हमारे उपयोगी अंग है। अगर ये न होते तो हमें कुछ भी सुनाई न पड़ता। यदि हम दूसरे की बात सुन न पाएँ तो बोलना भी नहीं सीख सकते। इसलिए यदि कान न होते तो हम गूँगे भी होते।” दीपिका ने पूछा- “हम सुनते कैसे हैं, डॉक्टर साहब?”

डॉक्टर ने समझाया- “आवाज़ या ध्वनि की लहरों को बाहरी कान ग्रहण करते हैं। ध्वनि तरंगें जब कान के परदे से टकराती हैं तो हमें सुनाई पड़ता है। इसलिए कान के परदे की

रक्षा बहुत आवश्यक है।” दीपिका ने कहा- “हम एक कान से भी तो सुन सकते हैं। एक कान खराब हो जाए तो क्या होगा?” है। डॉक्टर मुसकराए- “प्रकृति ने हमें दो कान यो ही नहीं दिए हैं। चारों ओर से आने वाली आवाज़ों को दोनों कान संतुलित रूप से ग्रहण करते हैं।

एक कान से ठीक न सुनाई पड़े तो संतुलन में गड़बड़ी हो सकती है। दुर्घटना भी हो सकती है। इसलिए दोनों कानों का ठीक होना आवश्यक है।” “धन्यवाद डॉक्टर साहब!” दीपिका ने कहा। फिर पिता जी और दीपिका ने डॉक्टर को नमस्ते को और घर लौट आए।

ग्रामीण जीवन – पत्र

स्तुत पाठ में ग्रामीण जीवन की झलक है, जहाँ शहर के मुकाबले शुद्ध हवा-पानी और भोजन है। इस पाठ के द्वारा के खान-पान, रहन-सहन की जानकारी प्राप्त होगी।

चक बारह जिला- फिरोजपुर,

पंजाब

24 अक्टूबर, 20XX

प्रिय सखी गौरी,

सप्रेम नमस्ते! आशा है तुम सब कुशलतापूर्वक होगे तुम्हें याद है न गाँव आने से पहले मैं कितना घबरा रही थी कि वहाँ हमारा मन कैसे लगेगा। सच तो यह है कि मैं एक सप्ताह से यहाँ हूँ और मुझे एक दिन भी शहर की याद नहीं आई।

स्टेशन पर पिता जी का पूरा परिवार हमें लेने आया था। स्टेशन के बाहर बैलगाड़ी खड़ी थी। बैलों के गले की घंटी की टुनटुन और कच्ची सड़क पर लगने वाले हिचकोले खाती गाड़ी में मुझे तो नींद ही आ गई। घर पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर आया था। दूर-दूर के रिश्तेदार हमसे मिलने आए हुए थे। दादा जी और दादी जी से इतने सालों बाद मिलकर बहुत अच्छा लगा। सबने साथ बैठकर गरम-गरम सरसों के साग के साथ मक्का की रोटियाँ खाईं। रात को हम सबको घर की भैंसों का दूध पीने को दिया गया। दूध भी इतना स्वादिष्ट हो सकता है, यह मैंने पहली बार जाना।

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A Husband And wife looking to field

तड़के ही ताऊ जी के साथ हम खेतों की ओर निकल गए। अधिकतर मकान पक्के बने है पर बीच-बीच में कुछ कच्ची झोपड़ियां भी है। गन्ने के खेत में हमने खूब गाने से यहाँ बड़े बड़े कड़ाहों में गन्ने के रस से गुड़ बनाया जा रहा था। गुड़ की एक डेली तुम्हारे लिए भी लाऊंगी। चने और मटर के खेतों में फलियाँ तोड़-तोड़कर कच्चे दाने खाने में भी बहुत मजा आया। अरहर की दाल और चावल मुझे कितने पसंद है, तुम जानती हो हो। अरहर के पौधे यहाँ मैंने पहली बार देखे। दाल की फलियाँ जब पक जाती है तो इसके पौधे हवा के झोंकों से ही जमीन पर गिर पड़ते हैं।

दूर-दूर तक हरियाली छाई थी, उनके बीच थोड़ी दूरी पर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने पीली चादर बिछा दी है। हमने सोचा कि वह सरसों का खेत होगा पर पास पहुँचकर पता चला कि वहाँ सूरजमुखी के ढेरों फूल सूरज की ओर मुख किए मुसकरा रहे है। इनके बीजों से तेल निकलता है, जो काफी महंगा होता है। आजकल इसकी खेती की ओर किसानों का सुकाव बढ़ा है।

ठंडी ताजी हवा में घूमकर जब हम घर पहुँचे तो दादा जी ने हमारी क्लास लगा दी। उन्होंने बताया कि गेहूं, चावल, जी आदि को ‘अनाज’ कहा जाता है। फलियों वाली मटर, चना, मूंग, अरहर आदि को ‘दलहन’ कहते हैं। जिनके बीजों से तेल निकलता है; जैसे-तिल, सरसो आदि उन्हें ‘तिलहन’ कहा जाता है।

कल हमें सबसे ज्यादा मजा आया जब हम गाँव की चौपाल में पहुंचे। इतवार था स्कूल की छुट्टी थी। चौपाल में बच्चे, जवान, बूढ़े सभी थे। एक बड़े से नीम के पेड़ के नीचे पक्का चबूतरा था, उसके आस-पास तीन-चार चारपाइयां पड़ी थीं मास्टर जी सबको अखबार से

खबरें पढ़कर सुना रहे थे। खबरों पर सब अपने-अपने विचार भी प्रकट कर रहे थे। गाँव के लोग भले हो अनपढ़ हों, पर हैं बहुत समझदार वहाँ पर मिडिल स्कूल अब इंटर कॉलेज वर चुका है। सब अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते है। वह दिन दूर नहीं जब सभी शिक्षा प्राप्त करने अंधविश्वासों से मुक्त हो जाएँगे।

यहाँ दिन-रात कैसे बीत जाते हैं, पता ही नहीं चलता। यह पत्र मैं तुम्हें अमराई में बैठकर लिख रही हूँ, जहाँ कभी हम लुका-छिपी खेलते हैं, कभी कंचे, गिल्ली-डंडा तो कभी झूला झूलते हैं। पेड़ों पर चढ़कर बैठने का तो मजा ही निराला है। पत्र काफी लंबा हो गया है, पर तुमने ही कहा था कि गाँव की सारी बात लिखना । माता जी और पिता जी को मेरा सादर नमस्कार कहना। चुन्नू को प्यार। शेष मिलने पर |

जैसे को तैसा – कहानी

प्रस्तुत कहानी में हरिदास नाम का एक ब्राह्मण भिक्षा माँगकर अपना गुजारा करता है। एक दिन वह चालाकी करता है। और कई लोगों को ठगता है। किंतु अंत में उसे इस गलत काम का परिणाम भुगतना पड़ता है। वह स्वयं ही एक डाकू द्वारा ठग लिया जाता है।

उज्जैन नगर में हरिदास नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह भिक्षा माँगकर ही अपना गुजारा करता था। एक दिन उसे भिक्षा में एक सेर चावल मिले। मौसम खराब होने के कारण वह चावल पका नहीं पाया।

उसी नगर में सुनंदा नामक एक औरत रहती थी। हरिदास ने सुनंदा को चावल दिए और उन्हें पकाने के लिए कहा। सुनंदा ने कहा कि उसके घर में चावल पकाने की हड़िया नहीं है तब हरिदास ने उसको एक हड़िया दी और कहा कि इसमें चावल पका दो। सुनंदा ने हड़िया में चावल पकाए और हरिदास के सामने लाकर रख दिए।

हरिदास को हड़िया में एक पाव चावल कम लगे। हरिदास ने कहा, “बहन, यह हड़िया कह रही है कि तुमने इसमें से एक पाव चावल निकाल लिए हैं।” इस पर सुनंदा बोली, “क्या तुम्हारी हड़िया बात भी करती है?”

“इस हड़िया के बोलने से ही तो मेरे पेट का गुजारा हो रहा है।” इस पर सुनंदा हँसी और बोली, “हरिदास भाई, मैं अकेली हूँ। मेरा कोई नहीं है। कम-से-कम यह इंडिया दे दो तो इससे बात करके मेरा समय कट जाया करेगा। इसके लिए तुम जितने पैसे

माँगोगे मैं दे दूंगी।” “इसकी कीमत पूरे दो हज़ार रुपये है। यदि तुम इतना पैसा दे सकती हो तो मैं यह हड़िया तुम्हें दे सकता हूँ।”

“ठीक है, मैं इतना पैसा तुम्हें दूंगी।” यह कहकर सुनंदा ने हरिदास को दो हज़ार रुपये दिए. और होडया ले ली। हरिदास रुपये लेकर चला गया।

सुनंदा ने उत्सुकता के साथ हड़िया के सामने एक गिलास लाकर रखा और हड़िया से पूछा, “हँड्रिया, बता मैने क्या लाकर रखा है?” हँडिया ने कुछ न कहा तो सुनंदा ने उसके सामने तरह-तरह की चीजें लाकर रखी और सवाल किए, पर हड़िया कुछ न बोली। सुनंदा को हरिदास के छलावे पर क्रोध आ गया और यह बहुत दुखी हुई।

उधर हरिदास दो हज़ार रुपये लेकर चला जा रहा था। रास्ते में एक सुनसान रास्ता पड़ा। रास्ते में एक कुत्ता उसके पीछे लग गया तो हरिदास ने उसको पकड़कर रस्सी से बाँध लिया और अपने साथ लेकर चल पड़ा। उधर से ही एक अफसर घोड़े से गुजर रहा था, उसने देखा कि हरिदास कुरते पर सवार होकर जा रहा है। इस पर अफसर ने हरिदास से कहा, “भाई यह बताओ, तुम्हारा कुत्ता अच्छा है या मेरा घोड़ा?”

“आपका घोड़ा मेरे कुत्ते के मुकाबले कहीं से भी अच्छा नहीं है। इसे दिन भर घास, दाना देना पड़ता होगा। पानी पिलाना पड़ता होगा। फिर मालिश करनी होती होगी। एक आदमी को इसकी देखभाल में लगे रहना होता होगा, पर मेरा कुत्ता ऐसा नहीं है। जहाँ छोड़ दो, वहीं अपना भोजन तलाश लेता है। खा-पीकर वापस घर आ जाता है। इसने आज तक मुझे तंग नहीं किया। इस लिहाज से तो मेरा कुत्ता ही अच्छा है।”

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A brother is talking to his brother

हरिदास की तर्कसंगत बात सुनकर अफसर बोला, “हरिदास क्या तुम हमारे घोड़े के बदले में इस कुत्ते को दे सकते हो?” हरिदास ने ना-नुकुर की तो अफसर जिद करने लगा। अंत में हरिदास ने कुत्ता अफसर को दे दिया और उसका घोड़ा ले लिया। अफसर ने पूछा, “इस कुत्ते पर सवारी करते समय इसे काबू में कैसे रखा जाता है?” हरिदास ने बताया, “लचीली छड़ी के दो-तीन चाबुक इसकी

पीठ पर जमा देना, यह तुरंत ही काबू में आ जाएगा।”

हरिदास शान से घोड़े पर बैठकर चला गया। उधर अफसर ने कुत्ते पर बैठकर उसको आगे बढ़ाना चाहा तो कुत्ता टस से मस न हुआ। अफसर ने छड़ी से कुत्ते की पिटाई कर दी। कुत्ता क्रोधित हो गया और गुर्राकर अफसर पर लपका और उसे काटकर भाग खड़ा हुआ। अफसर के काटो तो खून नहीं क्योंकि घोड़ा भी हाथ से गया और कुत्ता भी

उधर हरिदास घोड़े पर सवार हो आर्यनगर जा पहुँचा। वहाँ उसने ठहरने के लिए एक घर की तलाश की। उसे एक बुढ़िया ने रहने के लिए जगह दे दी। घोड़े के ठहरने का भी प्रबंध किया और उसकी देखभाल के लिए एक नौकर भी रख दिया।

एक रात बीत गई। हरिदास अस्तबल गया और उसने घोड़े की लीद में कुछ रुपये मिला दिए और बुढ़िया से आकर बोला, “मेरा घोड़ा रुपयों की लीद करता है।” बुढ़िया को आश्चर्य हुआ तो हरिदास ने कहा, “चाहो तो जाकर देख लो।” बुढ़िया अस्तबल गई और देखा कि लोद में रुपए पड़े हुए हैं।

बुढ़िया ने पूछा, “इस घोड़े से रोज कितने रुपये मिल जाते हैं?” हरिदास ने कहा, “रोज़ करीब एक हज़ार रुपये यह घोड़ा लौद में देता है।” बुढ़िया को लालच आ गया, वह बोली, मैं तुम्हें इस घोड़े की मुंहमांगी कीमत दूंगी, यह घोड़ा मुझे दे दो। हरिदास ने पहले ना-नुकुर की फिर दस हज़ार रुपये में घोड़े को बेचकर वह वहाँ से चला गया।

इधर सुबह बुढ़िया ने अस्तबल में जाकर लीद देखी, तो उसे वहाँ लोद के सिवा कुछ नहीं मिला। काफी देर तक उसने इंतजार किया, पर उसे लीद में रुपये नहीं दिखे। बुढ़िया की समझ में आ गया कि वह परदेसी उसे उगकर चला गया है। वह सिर पीटकर रोने लगी।

दस हज़ार ठगकर हरिदास चला जा रहा था कि रास्ते में उसे एक गाँव दिखा। उस गाँव की एक दुकान पर हरिदास ठहर गया और उसने खाने-पीने की चीजों के भाव पूछे। भाव पूछते समय उसने

हर वस्तु को चखकर खाया और इस तरह जब उसका पेट भर गया तो वह आगे चल पड़ा। इस पर दुकानदार ने उसको टोका, “पैसे तो देते जाओ भाई।” इस पर हरिदास ने कहा, “चखने के बाद लगा कि तुम्हारी चीज़ों से पेट खराब हो जाएगा |

इसलिए जब मैंने चीज़ खरीदी ही नहीं तो पैसे किस बात के?” दुकानदार को क्रोध आ गया और दोनों में बहस होने लगी। तभी उधर से ग्राम पंचायत के मुखिया का काफ़िला गुजरा। मुखिया बहस सुनकर रुक गया और मामला जानने की कोशिश की।

भी हरिदास को ढूंढते हुए सुनंदा अफसर और बुढ़िया तीनों आ पहुंचे। सबने अपना अपना दुखड़ा रोया तो मुखिया ने पंचायत बैठा ली और कार्यवाही शुरू की। मुखिया बोला, “क्यों हरिदास, क्या यह सच है कि तुमने इन सब लोगों को ठगा है?

” इस पर हरिदास कुछ न बोला और खामोश रहा। केवल माये पर पांच उंगलियां रखकर दिखाई। मुखिया ने सोचा कि शायद इसमें कोई रहस्य है। शायद यह घूस में मुझे पाँच हजार रुपये देगा।

मुखिया ने तुरंत पंचायत बर्खास्त कर दी और सबको अपने-अपने घर भेजने के बाद उसने सुनंदा से कहा, “क्या तुमने कभी हँडिया को बोलते हुए सुना है?” सुनंदा बोली, “नहीं।” “फिर तुमने हरिदास को पैसे क्यों दे दिए? तुम झूठ बोल रही हो चली जाओ यहाँ से।

” मुखिया ने बाद में अफसर से कहा, “क्यों साहब, आवारा जानवर अच्छा होता है या पालतू ?” अफसर ने जवाब दिया, “पालतू।” मुखिया ने कहा, “यह जानते हुए भी तुमने अपना पालतू जानवर हरिदास को क्यों दे दिया और उसका आवारा कुत्ता क्यों ले लिया? तुम अब झूठ बोल रहे हो।

” अफसर भी सकपकाकर चले गए। अब मुखिया ने बुढ़िया से कहा, “क्यों तुमने कभी सुना है कि घोड़ा रुपयों की लीद देता है?” उसने कहा, “नहीं मुखिया जी।” “तो तुमने यह जानते हुए भी घोड़ा क्यों खरीदा? इसमें हरिदास का कोई दोष नहीं है।”

फिर मुखिया ने दुकानदार से कहा, “सामान लेने से पहले उसने उसे परखने के लिए ही देखा, कोई सामान खरीदा तो नहीं था। इसमें हरिदास की कोई गलती नहीं है।” सारे लोग मन मसोसकर चले गए तो मुखिया ने कहा, “लाओ पाँच हज़ार रुपये निकालो।

” इस पर हरिदास ने कहा, “मैंने पाँच हजार रुपये देने के लिए कब कहा? मैंने तो माथे पर पाँच उँगलियाँ यह कहने के लिए रखी थीं कि मेरा नाम पाँच अक्षरों वाला है।” इस पर मुखिया खूब ज़ोरों से हँसा और फिर अपना वेश हटाकर, कमर से लंबा चाकू निकाला तो हरिदास डर गया। मुखिया के रूप में वह उस इलाके का खतरनाक डाकू कुंदन सिंह था।

डाकू ने हरिदास के पास से सारा माल ले लिया और चलता बना। हरिदास जैसे ठग को सबक मिल गया था।

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