Class 2 Short Moral Stories In Hindi | Moral Stories In Hindi

Class 2 Short Moral Stories In Hindi | Best Moral Stories In Hindi | Story for Class 2 in Hindi

हेलो दोस्तों मै हूँ केशव आदर्श और आपका हमारे वेबसाइट मोरल स्टोरीज इन हिंदी (Moral Stories in Hindi) में स्वागत है आज जो मै आपको कहानी सुनाने जा रहा हु |

उसका नाम है Class 2 Short Moral Stories In Hindi – कक्षा 2 लघु नैतिक कहानियाँ हिंदी में | यह एक Moral Stories For Kids और Motivational Story In Hindi और Best Class 2 Short Moral Stories In Hindi – कक्षा 2 लघु नैतिक कहानियाँ हिंदी में | की कहानी है और

Class 2 Short Moral Stories In Hindi – कक्षा 2 लघु नैतिक कहानियाँ हिंदी में – इस कहानी में बहुत ही मजा आने वाला है और आपको बहुत बढ़िया सिख भी मिलेगी | मै आशा करता हु की आपको ये कहानी बहुत अच्छी तथा सिख देगी | इसलिए आप इस कहानी को पूरा पढ़िए और तभी आपको सिख मिलेगी | तो चलिए कहानी शुरू करते है

आज की कहानी – Class 2 Short Moral Stories In Hindi – कक्षा 2 लघु नैतिक कहानियाँ हिंदी में |

Class 2 Short Moral Stories In Hindi | Moral Stories In Hindi
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ये कहानियां निम्न है:-

  1. संत ईसामसीह (The Jesus )
  2. संतुष्टि ( Satisfaction)
  3. एक गधा ( A Donkey )
  4. एक महात्मा ( A Sage )
  5. चप्पलों की मरम्मत ( Repair of slippers )
  6. धनुर्धारी अर्जुन ( Archer Arjun )
  7. चतुर सियार ( The Clever Jackal )

1. संत ईसामसीह ( The Jesus )

short story in hindi for class 2 – संत ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे। उन्होंने राह में देखा कि एक गड़रिया अपनी एक भेड़ को बहुत प्यार कर रहा था।

उसने उसे स्नेह से गोद में उठाया, फिर बहला-फुसलाकर ताजी-हरी घास खाने को दी। ईसामसीह ने गड़रिए से इस स्नेहातिरेक का कारण पूछा तो वह बोला – “प्रभु! यह भेड़ हमेशा रास्ता भटक जाती है।

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यों कहने को मेरे पास और बहुत सी भेड़ें हैं, पर वे सीधे घर आती हैं। आज इसे इसीलिए प्यार दिया, ताकि यह फिर रास्ता न भटके।” ईसामसीह प्रसन्न होकर अपने शिष्यों से बोले- ‘

राह से भटके हुओं को प्यार देकर ही राह पर लाना चाहिए।”

2. संतुष्टि ( Satisfaction )

story in hindi with moral for class 2 – एक बार एक व्यक्ति ईसामसीह से मिलने पहुँचा। उसने उनसे प्रश्न किया — ” उसे स्वर्ग कैसे मिल सकता है?” ईसामसीह ने उत्तर दिया “मित्र! स्वर्ग कहीं आसमान में नहीं, बल्कि तुम्हारे ही अंदर है।

उसे बाहर ढूँढ़ने में समय गँवाने के बजाय अपने अंतःकरण में तलाश करो। जो व्यक्ति सबसे प्रेम करता है, दूसरों के दुःख में अपना दुःख और दूसरों के सुख में स्वयं का सुख अनुभव करता है, short story for class 2

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वह स्वर्ग में ही है।” थोड़ा रुककर ईसामसीह बोले – “

जो दूसरों की सेवा करने में ही जीवन की सार्थकता समझता है,

वह सदा स्वर्ग का अधिकारी रहता है।” सत्य समझकर उस व्यक्ति ने सेवा को ही धर्म मान लिया और आंतरिक संतुष्टि का अधिकारी बना।

3. एक गधा ( A Donkey )

hindi story for class 2 with moral – एक गधा पीठ पर अनाज की भारी बोरी लादे चल रहा था। देवर्षि नारद वहाँ से निकले तो उन्होंने गधे के निकट से गुजर रही एक चींटी को झुककर प्रणाम किया।

गधे को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने अपनी जिज्ञासा नारद मुनि के समक्ष रखी। देवर्षि बोले –“वत्स! ये चींटी बड़ी कर्मयोगी है, निष्ठापूर्वक अपना कार्य करती है। देखो, कितनी बड़ी चीनी की डली लिए जा रही है।

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hindi story for class 2 – इसीलिए मैंने इसकी निष्ठा को नमन किया।” गधा क्रोधित हुआ और बोला “प्रभु! ये अन्याय है। इससे ज्यादा बोझ मैंने उठा रखा है तो मुझे ज्यादा बड़ा कर्मयोगी कहलाना चाहिए।”

देवर्षि हँसे और बोले – “पुत्र! कार्य को भार समझकर करने वाला कर्मयोगी नहीं कहलाता, बल्कि वो कहलाता है,

जो उसे अपना दायित्व समझकर प्रसन्नतापूर्वक निभाता है।”

गधे की समझ में कर्मयोग का मर्म आ गया था।

4. एक महात्मा ( A Sage )

story for class 2 in hindi – एक महात्मा जंगल में परमात्मा का भजन किया करते थे। उनकी कुटिया के समीप एक दुष्ट व्यक्ति रहा करता था, जो उन्हें अकारण ही परेशान करता था।

राजा को इस घटना का पता चला तो उन्होंने महात्मा जी को राजदरबार बुलवाया और कहलवाया-“आप मेरे दरबार में आइए, मैं इस देश का राजा हूँ और आपके साथ न्याय करूँगा।”

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महात्मा जी ने कुछ उत्तर नहीं दिया और मुँह पर कोयला मलकर राजदरबार पहुँचे। राजा ने महात्मा जी से इस तरह पहुँचने का कारण पूछा। महात्मा जी ने उत्तर दिया ‘राजन्! मैं प्रभु के राज्य का निवासी हूँ।

उनके न्याय पर विश्वास करके जीवनयापन करता हूँ। मृत्यूपरांत जब परमात्मा मुझसे पूछेंगे कि क्या मुझे -उनके न्याय पर विश्वास नहीं था, जो मैं आपके पास न्याय कराने पहुँचा तो मेरा मुँह काला होगा।

इसलिए मैंने पहले ही चेहरे पर काला रंग लगा लिया ताकि वहाँ लज्जित होने से बच जाऊँ।” राजा महात्मा के ईश्वरीय विधान प विश्वास से अत्यधिक प्रभावित हुआ। जिसे परमात्मा के न्याय पर भरोसा हो उसे अन्यत्र प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती।

5. घमंड का फल ( The Fruit Of Pride )

गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ इठलाती हुई बहती चली जा रही। थीं। वे कल-कल, छल-छल करती अपने-अपने वेग से बहकर बड़े प्रेम से सागर की ओर बढ़ रही थीं।

समुद्र ध्यानपूर्वक उन्हें अपने क्षेत्र में स्थान पाते हुए देख रहा था। उसने देखा कि किसी नदी का जल स्वच्छ है; किसी का हरापन लिए हुए, किसी का मटमैला है, तो किसी का नीलिमा लिए हुए। नदियों

के वेग के साथ कहीं बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थर बहते चले आ रहे हैं, कही विशालकाय वृक्ष तैर रहे। हैं, तो कहीं घास-फूँस और पत्ते दिखाई दे रहे हैं। समुद्र को उन नदियों के पानी में कहीं भी दूब और सरकंडे दिखाई नहीं दिए।

जब गंगा निकट आई, तो समुद्र ने पूछा, “हे गंगे, मैं देख रहा हूँ कि तुम सब नदियाँ बड़े-बड़े वृक्षों और पत्थरों को बड़ी सहजता से बहाती लाती हो, पर मैंने किसी के जल में सरकंडे बहते नहीं देखे। क्या बात है?

वे तुम्हारे मार्ग में नहीं पड़ते या फिर तुम उन्हें बहुत छोटा समझकर उनसे बात नहीं करतीं?” गंगा बोली, “नहीं स्वामी, ऐसा नहीं है। सरकंडों का तो वन-का-वन हमारे किनारे उग आता है।

हम उनसे कल-कल करके घंटों बातें भी करती रहती हैं। सरकंड़ा छोटा है तो क्या, वह बड़ा ही विनम्र है। उसे पता है कि

किस स्थिति में क्या करना चाहिए। हमारी लहरें जब तटों को तोड़-तोड़कर बहती हैं,

और हमारा जल सरकंडों तक पहुँच जाता है, तो वे झुक जाते हैं। वे झुकते भी उसी ओर

हैं, जिस ओर हमारा बहाव होता है। सरकंडों की जड़ें गहरी नहीं होतीं, उनका तना भी

नहीं होता, फिर भी हम उन्हें नहीं बहा पातीं। जैसे ही हमारा पानी उतरता है,

वे फिर शान से खड़े हो जाते हैं और हँसते-हँसते जीते हैं। यही

नहीं, जब तेज़ हवा चलती है, तब भी वे ऐसा ही करते हैं। “और इतने बड़े-बड़े वृक्ष कैसे बह जाते हैं?” समुद्र ने पूछा। गंगा कहने लगी, “वृक्ष बड़े घमंड से सिर ताने खड़े रहते हैं।

हमारा जल उनके तनों से टकराता है तो वे बड़े अभिमान से कहते हैं, “अरी लहरों! भागो यहाँ से, नहीं तो टकराकर चूर-चूर हो जाओगी। उन्हें अपने बड़प्पन का बड़ा अहंकार है। उसी अहंकार से वे ढह जाते हैं। घमंडी सदैव ही दुख पाता है।”

समुद्र ने सोचा, “वही उन्नति कर पाता है, जो व्यर्थ का अभिमान नहीं करता। चाहे वह रूप का हो, धन का हो या फिर शक्ति का हो, अभिमान सभी बुरे होते हैं।”

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6. चप्पलों की मरम्मत ( Repair of slippers )

ग्रीष्म ऋतु थी। राघव की परीक्षाएँ समाप्त हो चुकी थीं। ग्रीष्मावकाश का समय था। पुस्तकें तो पुरानी हो चुकी थीं। स्कूल खुलने पर नई पुस्तकें बस्ते में आ बैठेंगी, तब तक खेलने-कूदने के अलावा कोई कार्य न था।

परंतु खेलने-कूदने में भी तो दूसरे साथी की आवश्यकता होती है। अब यह भी आवश्यक नहीं कि दूसरा साथी मिले ही या पूरे दिनभर साथ रहे। बच्चा अकेला रहे, तब भिन्न प्रकार के कार्य सूझते हैं और किसी संगति में रहे तो भिन्न प्रकार के। वैसे राघव का साथ निभाने वाला साथी कठिनाई से ही मिल पाता है क्योंकि वह थकता नहीं था।

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दूसरे साथी थककर लौट जाया करते थे। ग्रीष्मावकाश के दिनों में सबसे गंभीर बात यह थी कि परिजन दोपहर को सोए रहते थे। यही हाल पूरे मौहल्ले का था। अब खेले तो किसके साथ? सो वह घर में ही उलट-पुलट करता रहता था।

एक दिन सायं के समय जब वह पिता के साथ बाज़ार से लौट रहा था, उसने ताँगे में जुड़ने वाले एक घोड़े को नाल चढ़ाया जाना देख लिया।

राघव ने यह दृश्य देखकर पिता से पूछा कि ये लोग, घोड़े को गिराकर उसके पैरों में क्या ठोक रहे हैं? तब पिता ने बताया कि ये लोहे की नाल ठोक रहे हैं। नाल लगी होने पर घोड़े के खुरों को हानि नहीं पहुँच पाती और न वे घिस पाते हैं।

क्योंकि घोड़े का कार्य दौड़ना है, तो स्वाभाविक है कि उसके खुर बचाने ही होंगे। इसलिए उसके खुरों पर नाल चढ़ाई जाती है।

राघव पर इस दृश्य का बड़ा प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगा कि चलने-फिरने या दौड़ने से घोड़े के खुर घिस जाते हैं, इसलिए उन्हें घिसने से बचाने हेतु उन पर नाल चढ़ाई जाती है। तो बात यह हुई कि नाल घिसेंगी, खुर नहीं। वाह! यह तो बहुत बढ़िया बात है।

स्कूल का परीक्षा परिणाम आने पर राघव की माता जी ने पूछा था कि उत्तीर्ण होने की ख़ुशी में वह क्या खरीदना चाहता है। उसने चमड़े की सुंदर-सी चप्पलें खरीदीं।

अन जब से उसने घोड़े की नाल का दृश्य देखा, तो सोचने लगा कि यदि उसकी चप्पलों के तलवे पर लोहे की कोई वस्तु ठोक दी जाए, तो वे भी नहीं घिसेंगी और वह लंबे समय तक उनका आनंद उठा सकेगा।

बस! फिर क्या था। उसने मोची द्वारा जूतों की मरम्मत में काम आने वाली छोटी कील का प्रबंध किया। पुड़ियाभर कीलें थीं। दोपहर को जब सब सो गए,

वह चप्पलें, की पुड़िया और हथौड़ी लेकर बैठ गया। जब तक दोनों चप्पलों के तलवों पर पूरी तरह से कीलें न ठोक दीं, वह इस कार्य में जुटा रहा। कीलें ठुककर चप्पलें भारी-सी हो गई थीं।

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जब उसने देखा कि कार्य पूर्ण हो गया है, तो सामान एक ओर सरकाकर खड़े होकर उसने चप्पलें पहनीं ।

कीलें ठुकने से चप्पलों का सरलीकरण समाप्त हो चुका था। कीलें राघव के पैरों में चुभ रही थीं। वह दो कदम भी ठीक से चल नहीं पा रहा था। इतने शौक से खरीदी गई चप्पलें जिन्हें वह रोज पॉलिश करता था, अपनी असहाय स्थिति का रोना रो रही थीं। हल्की-फुल्की चप्पलें जैसे लौहमिश्रित चमड़े का खोलभर थीं।

अब वे किसी काम की न थीं। आखिर राघव ने उनकी मरम्मत जो कर दी थी। अब डर था तो इस बात का • कि माँ को चप्पलों की दुर्दशा के विषय में क्या बताएगा क्योंकि बात छिपने वाली नहीं थी। वह अपने किए पर पछता रहा था |

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7. धनुर्धारी अर्जुन ( Archer Arjuna )

बहुत पहले की बात है। हमारे देश में पांडु नामक राजा राज करते थे। उनके पाँच पुत्र थे – युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव; जो पांडव कहलाते थे। युधिष्टिर इनमें सबसे बड़े थे। ये पाँचों राजकुमार गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्हें अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा भी गुरु द्रोणाचार्य ने ही दी।

भीम गदा चलाने में कुशल थे, | तो अर्जुन धनुष-बाण चलाने में। एक बार की बात है कि गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने पेड़ पर एक चिड़िया का खिलौना टाँग दिया। गुरु द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों से चिड़िया की आँख पर निशाना लगाने के लिए कहा।

पहला शिष्य आगे आया। गुरु जी ने पूछा “उधर देखो, तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है ?” वह बोला- “गुरु जी मुझे पेड़ पर चिड़िया, पत्ते सभी कुछ दिखाई दे रहा है। ” गुरु जी ने उसे बाण चलाने की आज्ञा नहीं दी।

अब दूसरे शिष्य को बुलाकर गुरु जी ने पूछा- ” तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है ?” शिष्य ने कहा – “मुझे चिड़िया के पंख दिखाई देते हैं।” गुरु जी ने उसे भी बाण नहीं चलाने दिया। अब अर्जुन की बारी आई। गुरु द्रोणाचार्य ने उससे भी यही प्रश्न किया। अर्जुन ने कहा “गुरु जी मुझे तो केवल चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है।

” गुरु जी ने उसे बाण चलाने की आज्ञा दे दी। अर्जुन ने बाण छोड़ा और वह ठीक चिड़िया की आँख में लगा। अर्जुन धनुष-बाण चलाने में बहुत कुशल थे। उनका सामना करने वाले बहुत कम वीर थे। अतः इनका नाम धनुर्धारी के रूप में हमेशा प्रसिद्ध रहेगा।

शिक्षा – सच्चे मन से प्रण करने वाला हो अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।

8. चतुर सियार ( The Clever Jackal )

किसी वन के एक भाग में दमदम नाम का एक सिंह रहा करता था। उसके भय से आस-पास के जानवर दूर भाग गए थे। कुछ जानवरों को वह अपना शिकार बना चुका था। सिंह दिन-भर अपनी गुफा में सोता था और रात्रि में अपना शिकार तलाशता था। एक बार सब जगह घूमने पर भी उसको अपने भोजन के लिए कोई पशु नहीं मिला। इससे उसको भोजन की चिंता होने लगी।

एक दिन रात्रि का प्रथम पहर था। चंद्रमा निकल आया था। सारा जंगल सुनसान हो चुका था । वृक्षों पर कलरव करने वाले पक्षी अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान कर चुके थे। केवल अकेला सिंह ही अपनी गुफा में बैठा भूख से व्याकुल आकाश के तारे गिन रहा था।

सिंह अपनी गुफा से उठा और शिकार की तलाश में चल दिया। चलते-चलते। वह एक खुले मैदान में आ गया। उसको कहीं अपना शिकार नहीं मिला। इससे वह और भी बेचैन हो गया। इतने में उसे एक गुफा दिखाई दी। गुफा को देखकर सिंह उसी में घुस गया।

उसने सोचा को रात्रि में कोई न कोई जीव यहाँ विश्राम करने के लिए अवश्य आएगा तब उसको मारकर अपनी भूख मिटा लूँगा। इस प्रकार विचार कर वह गुफा में छिपकर बैठ गया। तभी कुछ देर बाद उस गुफा में निवास करने वाला चंद्रमुख नाम का एक सियार वहाँ आ गया।

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रात्रि का दूसरा पहर था। चंद्रमा अपनी यौवनावस्था में पहुँच चुका था। आस-पास का क्षेत्र साफ दिखाई दे रहा था। इसलिए चंद्रमा की रोशनी में शेर के पैरों के निशान भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। गुफा के द्वार पर पहुँचकर सियार ने देखा कि सिंह के पंजों के निशान भीतर जाते हुए दिखाई दिए।

उसने सोच लिया कि अवश्य कोई सिंह गुफा के अंदर घुसा बैठा है। अब क्या किया जाए ? वह इसी दुविधा में पड़ा तुम मेरे आने पर कहा करती थी, “आइए गीदड़ राज आपका स्वागत है। लेकिन आज तो तुम्हें साँप ही सूँघ गया है। यदि आज तुम्हें मुझे नहीं बुलाना है तो ठीक है, मैं अपने रहने के लिए कहीं दूसरी जगह तलाश कर लेता | यह कहकर सियार चुपचाप वहाँ खड़ा रहा।

उधर सिंह ने सोचा कि अब वन गया काम, कुछ ही देर में सियार उसका शिकार बन जाएगा। वह सोचने लगा कि अवश्य ही यह गुफा उसका स्वागत करती होगी, किंतु आज मेरे भय से बोल नहीं पा रही है। डर से भी तो सभी की घिग्घी बंध जाया करती है, तो क्यों न में ही उसका उत्तर दे दूँ। मेरी बात सुनकर सियार ज्यों ही भीतर प्रविष्ट होगा, मैं उसको चट कर जाऊँगा।

यह विचार कर शेर ने सियार का आह्वान किया और बोला- “आइए, आइए गीदड़ राज ! आपका हार्दिक स्वागत है। मैं तो इतनी जल्दी इसलिए नहीं बोली थी कि कहीं और गैर जानवर आपकी गुफा में न घुस जाए। आइए आपका स्वागत है। रात हुए मैंने कभी नहीं सुना।

अच्छा हुआ आपने अंदर से बोलकर मुझे सावधान कर दिया। अच्छा वनराज, मैं चला। आज के बाद आपको मेरी गंध भी न मिलेगी।” ऐसा कहते हुए सियार भागकर सिंह की आँखों से ओझल हो गया। सिंह गुफा पर खड़ा खड़ा हाथ मलता ही रह गया।

शिक्षा –

प्रस्तुत अध्याय हमें मुसीबत के समय धैर्य तथा हिम्मत से काम लेने की शिक्षा देते है।

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